Book Title: Anuvrat Sadachar Aur Shakahar
Author(s): Lokesh Jain
Publisher: Prachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan

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Page 10
________________ 32. धर्ममय राजनीतिज्ञ जीव दया के कार्य को आगे ले जा सकते हैं 33. खुशी के समय होश और मुसीबत के समय जोश न खोएं 34. हर व्यक्ति के जीवन का प्रथम शिक्षक है माँ 35. मानवजन्म रूपी पारसमणि को पाकर सम्यक् पुरुषार्थ के द्वारा थोड़े ही भवों में होवें भव पार 36. गुरुचरणों में समर्पण तथा सकारात्मक विचारों से संवरता है जीवन 37. स्वस्थ समाज एवं उन्नत जीवन के लिए भोगोपभोग परिमाण शिक्षाव्रत का पालन हितकारी 38. पत्थर पर नाम लिखने वाला नहीं अपितु सेवाभावी दान ही श्रेष्ठ 39. सुखी रहना हो तो दूसरों में कमियां नहीं, सद्गुण ढूंढ़ो 40. धर्म और तप युवास्था में करने का कर्तव्य है, वृद्धावस्था सल्लेखना के लिए है 41. गांधीजी का अहिंसामय जीवन वर्तमान में भी प्रासंगिक एवं प्रेरणास्पद 42. इंसान के बनाए भगवान को लोग पूजते हैं किन्तु भगवान के बनाए इंसान को नहीं 43. धर्म का सेवन करो, मृदु बनो, मुलायम बनो 50. सल्लेखना - समाधिमरण ही अहिंसक एवं श्रेष्ठ 51. प्राकृत भाषा के आगम ग्रंथो में की गई अहिंसा, सदाचार और शाकाहार की पहल राष्ट्र की सुख-शांति के लिए अनिवार्य 52. अणुव्रतों के अतिचार व्यक्ति समाज व राष्ट्र के आरोग्य के लिए घातक 53. जो आसक्ति है, वही परिग्रह है 54. अणुबम से नहीं, अणुव्रत से होगी विश्व शांति 55. अनर्थदण्ड से बचो और सार्थकता के लिए करो अहिंसक पुरुषार्थ 56. सामाजिक सद्भाव के विकास से हो सकता है गिरनार का सर्वसम्मति से समाधान 66-68 68-69 69-72 72-73 89-93 44. भगवान महावीर के पूवर्भवों से लें सम्यक् जीवनचर्या का बोधपाठ 93-96 96-98 45. मन में संवेदना का दीप जलाकर समाज की अमावस को पूर्णिमा में बदलें 46. सकारात्मक विचारों की शक्ति और सुसंगति जीवन के सर्वोत्कर्ष की गांरटी 98-100 47. सेवा और प्रेम मोक्ष का मार्ग तथा घृणा व कषाय पतन का धाम 100-102 48. मर्यादापूर्ण जीवन ही मस्तीभरा आनंदमय जीवन 102-104 104-105 49. पर पीड़ा को समझने वाला ही सच्चा वैष्णवजन वैष्णवजन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाणे रे.... 57. जो पर को दुःख दे, सुख माने, उसे पतित मानो 58. मुनियों का विहार एक सहज एवं शाश्वत प्रक्रिया है । 59. श्रीमद राजचन्द्रजी की आँखो में झलकती थी वीतरागता 60. स्तुति - भारदी-शुदी आचार्य श्रीसुनीलसागर महाराज कृत 74-76 76-78 78-80 80-82 82-84 85-87 88-89 105-108 108-110 111-114 114-115 115-116 116-118 118-119 119-120 120-121 121-122 122-123

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