Book Title: Anekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 11
________________ ८, वर्ष २६, कि० १ अनेकान्त भूल की है कि महाभारत युद्ध ६५३ कलि स० में हुआ था। मिथ्याचार मानती है । सच्चे धर्म के लिए प्रास्म-पर्यवेक्षण ___ डा. वासुदेव शरण अग्रवाल ने अपनी मृत्यु से कुछ आवश्यक है। प्रियदर्शी ने सब धर्मों के सार-तत्व की वृद्धि ममय पूर्व 'अशोक का लोक सुखयन धर्म' लेख लिखा था। पर और सब सम्प्रदायो के दृष्टिकोण को उदार बनाने पर इसमें उन्होंने अभिलेखों के विस्तृत तुलनात्मक अध्ययन वल दिया है (लेख १२)। के प्राधार पर यह दर्शाने का प्रयत्न किया था कि प्रियदर्शी इन शिलालेखों मे बुद्ध-धर्म का कही उल्लेख नही का धर्म हिन्दू धर्म था : 'ऐसा पोराण पक्ति'। यही है। श्रमण शब्द का अर्थ जैन साधु होता है जिसने अपनी सनातन धर्म है । लघु शिलालेख २ मे दिए हुए शब्दो की वासनामो का शमन कर लिया हो । जैन ग्रन्थो मे भी तुलना तैत्तिरीय उपनिषद् की शिक्षावली के 'सत्यं वद । ब्राह्मण-श्रमण शब्दो का साथ-साथ प्रयोग मिलता है। धर्म चर । मातृदेवो भव । प्राचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो प्रियदर्शी के काल मे बौद्ध धर्म का बहुत अधिक प्रचार भव ।' से की जा सकती है। "धर्म अच्छा है, लेकिन धर्म नही था। जैन धर्म को राज्याश्रय प्राप्त था और इसलिए है क्या ? पाप रहित होना, बहुत कल्याण करना, क्या, जनता भी इसी मत की अनुयायी थी। चन्द्रगुप्त मौर्य के दान, सत्य और पवित्रता , ये धर्म है।"मनु ने धर्म के दस अमात्य प्राचार्य कोटिल्य न शाक्य प्रबजितो को देवकार्यों लक्षण माने है : घृति, क्षमा, दया, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय एव पितृकार्यों में निमत्रित करने का निषेध किया था। निग्रह, ध्यान, विद्या, सत्य और अक्रोध । प्रियदर्शी की शाक्यप्रवजित' से तात्रयं 'बोद्ध भिक्षुओं' से है। जिनव्याख्या मनु सदृश है । चडता, निष्ठरता, क्रोध, मान और शासन शब्द का अर्थ 'जैन' था। 'जिन' शब्द महावीर ईया ये भासानिब या पाप के गर्त मे मनुष्य को गिराते है स्वामी के लिए प्रयुक्त किया गया है । श्रमण, श्रावक, (स्तम्भ-लेख ३) । मनु के ध्यान को प्रियदर्शी ने 'निझति' । उपासक, सघ शब्द जैन धर्म से सम्बन्धित है : 'सः सम्प्रति कहा है। लेख ७ में निझति के महत्व पर बल दिया गया नामा राजावन्तीपतिः श्रमणाना श्रावकः उपासकः पचाणहै। ध्यान द्वारा मानसिक परिवर्तन ही निझति है। यह व्रतधारी प्रभवदिति शेष.'--बहत्कल्प सूत्र टीका । विद्जैन धर्म का विशिष्ट शब्द है। वस्ततः प्रियदर्शी ने जीवन वानो ने शिलालेखा की शब्दावली का भली प्रकार प्रध्यका सत्य पा लिया था। प्रियदर्शी और व्यास की घर्म यन नही किया, नहीं तो प्रियदर्शी राजा जैन था इसमे कोई विषयक वाणी एक है-भेरी घोष को हटाकर मैंने धर्म घोष सन्दह का अवकाशन चलाया है (लेख ४)। लेख २ मे प्रियदर्शी ने शील और प्रियदशी की लाट पर नन्दी की मत्ति मिली है सदाचार-प्रधान धर्म को 'दीधाबुस' या दीर्घजीवी माना है। (देखिए रामपुरवा की नन्दी को मूत्ति )। यह नन्दी की शतपथ ब्राह्मण मे 'यशोव श्रेष्ठतम कम' लिखा है मत्ति नन्दिवधन का प्रतीक है। (१/७/१/५)। तैत्तिरीय ब्राह्मण म भी 'यज्ञो हि श्रेष्ठतम कर्म' कहा गया है (३/२/१/४) । परन्तु कालान्तर में इस युम में श्रमण-ब्राह्मणो का विरोष था, ऐसा महापरम्परा विकृत हो गयी और यज्ञो मे पशु हिसा होने भाष्यकार के 'एषा च विरोधः शाश्वतिकः' (२।४।१२) पर लगी। इसी का वर्णन प्रियदर्शी ने अपने चतुर्थ शिलालेख भाष्य से प्रकट होता है। उन्होने 'बहिनकुलम्' के साथमे किया है-'प्रतिकति अनर बहूनि वासस तानि वढि तो साथ 'श्रमण-ब्राह्मणम्' का उल्लख किया है। सम्भवतः एव प्रणारभा विहिसा न भूतान' अर्थात् पूर्वकाल मे बहुत प्रियदर्शी के काल में भी श्रमण-ब्राह्मणो म विरोध था, समय तक पशुमो की हिसा और समस्त प्राणियो के प्रति इमलिए प्रियदर्शी ने दोनो धर्मों के अनुयायियो का धर्मों हिसात्मक व्यवहार बढना रहा । इसलिए प्रियदर्शी ने का सार ग्रहण करने का आदेश दिया था। घोषणा का. 'एसहि ऐस्टे कम या धर्मानसारसन' प्रथांत उपयुक्त प्रमाणा स स्पष्ट है कि प्रियदशी राजा, अशोक वही श्रेष्ठ कर्म है जो धर्म का अनुशासन है। परन्तु धर्मा- मौर्य से कम से कम १६२ वष पूर्व हुमा था और जैन था, चरण के लिए शील प्रावश्यक है। शील-प्रधान जीवन में न कि बौद्ध । प्रशाक मौयं वौद्ध था। भ्रम से इतिहासभावशुद्धि के बिना सब प्राडम्बर बन जाता है। मन ने वेत्तानो ने दो भिन्न कालो के दो भिन्नधर्मी राजाप्रो को (२/६७ मे) 'न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धि गच्छति कहिंचित' मिला दिया है। मत्री, नेहरू शोध सस्थान, कहा है। गीता भी मन के सयम के बिना धार्मिक जीवन का ४६ माडल हाउस, लखनऊ

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