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पण्डित शिरोमणिदास विरचित धर्मसार
डा० भागचन्द्र जैन नागपुर के परवार जैन मन्दिर के हस्तलिखित श्रावक जीत पर भेद अपार । ग्रन्थों को देखते समय मुझे एक गुटका मिला जिसमें छोटे- बरनन करौं सकल हितकार | मोटे अनेक ग्रन्थो के साथ धर्मसार ग्रन्थ की भी प्रतिलिपि
प्रन्थ का अन्तिम भाग की गई है। पन्नों को पलटने से ऐसा लगा कि यह ग्रन्थ अत्यधिक उपयोगी और महत्वपूर्ण है । भट्टारक सकलकीर्ति
ग्रन्थ के अन्त में पण्डित जी ने अपनी गुरु परम्परा के उपदेश से पण्डित शिरोमणि ने इस ग्रन्थ का निर्माण
का उल्लेख किया है। साथ ही प्राचार्य जिनसेन और किया । प्रतिलिपि सवत् १८२१ की है।
सिद्धान्त चक्रवर्ती प्राचार्य नेमिचन्द्र का भी स्मरण प्रन्थ का प्रादि भाग
किया है। ग्रन्थ के प्रारम्भ मे जिनेन्द्र भगवान की स्तुति कर जसा गनधर वाना कहा । सा धम मान त
जैसी गनधर वानी कही । सो धर्म मुनि तेसी सही ॥ पडितजी ने अपने आपको भट्टारक सकलकीति का शिष्य
नेमिचन्द सिद्धांत वखानी। धर्म भेद पुन तिनत जानौ ७८॥ बताया और कहा कि उन्ही के उपदेश से धर्मसार ग्रन्थ जिनसेन भये गन को खान । धरम भेद सव कहो बखान । की रचना की जा रही है। ग्रन्थ का आदि भाग इस तिन ते जतिवर भये अनेक । राखी बहुत धर्म की टेक ७६। प्रकार है
सूरज बिन दीपक भये जैसे । गनधर विन मुनि जानौ तैसे। वीर जिनेसुर पनऊ देव । इन्द्र नरेंद्र कर सत सेव ॥
जस कीरति भट्टारक संत । धर्म उपदेस दयौ गुनवन्त ॥८॥ अरु वदो हो गये जिनराय । सुमरत जाकै पाप नसाय ॥१ ललितकीर्ति भव जन सुख पाइ। जिनवर नाम जपे हित लाइ वर्तमान जे जिनवर ईस । कर जोर पुन नाऊँ सीस ॥ धर्मकोति भये धर्म विधान । पदमकीति मुनि कहे वखान ॥ जे जिनेद्र भवि मुनि कहे । पूजों ते मै सुर मुनि महे ॥२ जिनके सकलकीर्ति मुनि राज । जप तप सजम सोल विराज जिनवानी पनऊँ धरि भाव । भव-जल पार उतारन नाव। ललितकीति मुनि पूरव कहै । तिनके ब्रह्म सुमति पुनि भये॥ पनि बदौ गौतम गनराय । धर्म भेद जिन दयौ बताय ॥३ तप प्राचार धर्म सुभ दीन । जिनवर सौं राख निज प्रीत। प्राचारज कंदकंद मनि भये । पूजो तमं सुर मनि भये । तिनके सिव भये परवीन । मिथ्या मति सब कोनी छीन॥ अरु जे जतिवर भये अपार । पनऊ जिनते भवदधि तार ।।४ पडित कहै ज गंगादास । व्रत तप विद्या सील निवास । सेऊं सकल कीरति के पाय । सकल पुरान कहै समझाय ॥ पर उपगार हेत अति कियौ । ग्यान दान पुन बहुतन दियो। जिन सत गर कहि मगल कहै । धर्मसार सुभ ग्रह कहै ।।।५ तिन्ह के सिष्य सिरोमन जान । धर्मसार पुन कही बग्वान । ज्ञानवत जे मति प्रति जान । ते पुन पंथन सकै बखान ॥ करम क्षिपक कारन सो भई । तव यह धर्म भेद विधि ठई॥ मै निलज मूरख प्रति सही। कह न सको जैसी गर कही। इसके बाद धर्मसार की उपयोगिता प्रदर्शित करते हा अव यांसु तजौ बहमद जनै । तो कह सूरज किरनहिं गनं ।। ग्रन्थ समाप्ति के स्थान और काल का दिग्दर्शन कराया जिनवर सेऊं मनवचन काय । धर्मसार कही सुखदाय ॥७ हैभव जीव सुनिक मन धरै, मूरिख सुनि बहु निंदा कर ॥ जो या पड़े गुनै चित लाय । समकित प्रगट ताको प्राय। सुगति कुगति को यह सुभाव । गहै जीव मंटो को भाव ॥ व्रत आचार जान सुभ रूप । पुनि जान सिंसार सरूप ८६ सुनहु भव्य तुम सुथिरचितुलाइ।
जिन महिमा जान सुखदाई। पुनि सो होइ मुक्ति पुर राई सुगतिपंथ मारग यह पाई॥
प्रक्षर मात तीन तुक होइ । फेरि सुधारौ सज्जन सोइ ८७