Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 21
________________ अनेकान्त [वर्ष ६ शताब्दीका सर्वोत्तम प्रामचरित माना जाता है । उसमें हुये इसके कई कारण हैं, उनमें एक तो यह है कि उनके उन्होंने अपने अत्यन्त प्रिय श्रमजसी मृत्युका जिक्र केवल जीवनकी घटनाएँ इतनी वैचित्र्यपूर्ण हैं कि उनका यथा एक वाक्यमें किया था:-- विधि वर्णन ही उनकी मनोरंजकताकी गारंटी बन सकता "A dark cloud hung upon our है। और दूमग कारण यह है कि कविवरमें हास्यरसकी cottage for many month." प्रवृत्ति श्र-छी मात्रामें पाई जाती थी। अपना मज़ाक उदाने अर्थात् "किन ने । महीनों तक हमारी कुटी पर दुःख का कोई मौका नहीं छोडना चाहते । कई महीनों तक की घटा छाई रही।" आप एक कचौड़ी वाले से दुबका कचौड़ियां खाते रहे थे। यह बात ध्यान देने योग्य है कि ऐलेगजेण्डर प्रोपाट फिर एक दिन एकान्तमें पापने उससे कहाकिन ज्योतिर्विज्ञानके बड़े पण्डित थे. जारकी रूसी नौकर तुम उधार कीनी वहुत, आगे अब जिन देहु । शाहीने निरपराध ही उन्हें साइबोग्यिाके लिये निर्वासित मेरे पाम किछू नहीं, दाम कहाँ सौं हु॥" कर दिया था और वहांसे लौटते समय उन्होंने ग्रामघात पर कचौड़ीवाला भला श्रादमी निकला और उसने कर लिया था ! उत्तर दिया-- अपने चारित्रस्खलनोंका वर्णन उम्होंने इतनी स्पष्टता कहै कचरीवाल नर, बीस रुपैया स्वाहु । से किया है कि उन्हें पढ़कर अराजकवादी महिला ऐमा तुम को उन कछु कहै, जहाँ भात्रै तहाँ जाहु ॥" गोल्डमैनके प्रारम-चरितकी याद आ जाती है । अंग्रेजीके आप निश्चिन्त होकर 2 मात महीने तक दोनों वक्त एक माधुनिक प्रात्मचरितमें उसकी लेखिका ऐथिल मिनिन भ पेट कचौडियो ग्वाते रहे और फिर जब पैसे पास हुए ने अपने पुरुष-सम्बन्धोंका वर्णन निःसंकोच भावसे किया तो चौदह रूपए देकर हिसाब भी साफ कर दिया । चकि है पर उसे इस बातका क्या पता कि तीनसी वर्ष पहिले हम भी श्रागरे जिलेके ही रहने वाले हैं. इस लिये हमें एक हिन्दी कविने इस मादर्शको उपस्थितकर दिया था। इस बातपर गर्व होना स्वाभाविक है कि हमारे यहाँ ऐसे उनके लिये यह बड़ा प्रासान काम था कि वे भी "मोसम दूरदर्शी श्रद्धालु कचौड़ीवाले विद्यामान थे जो साहित्य कौन मधम खल कामी" कहकर अपने दोदो धार्मिकताके सेवियों को छह-सात महीने तक निर्भयतापूर्वक उधार दे पमें छिपा देने । जन दिनों ग्रामचरित लिखनेकी सकते थे। कैसे परितापका विषय है कि कचौडी वालेकी रिवाज़ भी नहीं थी-याजकल तो विनायनमें चोर राकू वह परम्परा अब विद्यमान नहीं, नहीं तो आजकल के महँगी और वेश्याग भी प्रारमचरित लिखलखकर प्रकाशितकर के दिनों में वह गरेके साहित्यिकोंके लिये वही लाभदायक रही है--और तत्कालीन सामाजिक अवस्थाको देखते हुए सिद्ध होती। कविवर बनारसीदासजीने सचमुच बडे दुःसाहसका काम कविवर बनारसीदासजी दई बार बेवकूफ बने थे और किया था । अपनी हरकबाजी और सज्जन्य पातशक अपनी मूर्वताओं-1 उहोंने बड़ा मनोहर वर्णन किया है। (सिफलिस) का ऐसा खुल्लमखुला वणन करने में माधुनिक एक बार निसी धूत सन्यासीने आपको चमका दिया कि लेखक भी हिचकिचावेंगे। मानों तीन सौ वर्ष पहिले अगर तुम मुक मंत्रका जाप पूरे सालभर तक बिल्कुल बनारसीदासजीने तत्कालीन समाजको चुनौती देते हुए कहा गोपनीय दंगस पास्थाने में बैठकर करोगे तो वर्ष बीतनेपर या "जो कुछ मैं हूं, भापके सामने मौजूद है. न ममे घरके दर्वाजेपर एक अशर्फी रोज़ मिला करेगी। मापने इस भापकी घृणाकी पर्वाह है और न श्रापकी श्रद्धाको चिन्ता" कल्पद्रम मन्त्र का जाप उस दुर्गन्धित वायुमण्डलमें विधिलोक-जउमाको भावनाको ठुकरानेका यह नैतिक बन सहस्राम वत् किया पर सुवर्ण मुद्रा तो क्या आपको बानी कौडी एकाध लेखकको ही प्राप्त हो सकता है। भी न मिली ! कविवर बनारसीदासजी मारमचरित लिखनेमें सफल बनारसीदासजीका पारमचरित पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत

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