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तक ही नहीं सकत और उधरता और
व्यक्तित्व और कृतित्व के रंग में रंगता रहा । और अन्दर ही अन्दर देराग्य सागर तरंगायित होता रहा। एक दिन वह स्वर्ण अवसर भी पाया, जवकि पिता के साथ पुत्र ने पूज्य श्री मोतीराम जी महाराज के दर्शन किए। पूज्य श्री की भविष्यदर्शी आँखें वालक में छिपी अहप्ट दिव्य ज्योति को निहार गई। पिता से पूज्य श्री ने कहा-यह ज्योति केवल घर के प्रांगन तक ही नहीं, विश्व गगन में प्रकाशमान होनी चाहिए। इधर पूज्य श्री का यह संकेत और उधर पुत्र का विवेक और वैराग्य इतना वेगवान् था कि माता कि ममता और पिता का मोह भी उसे बांध रखने में सर्वथा असमर्थ हो गया।
___ वह विवेक-शील किशोर केवल वारह-तेरह वर्ष की वय में गृहत्याग करके पूज्य मोतीराम जी महाराज की सेवा में आकर रहने लगा। सन्त वनने की पूरी शिक्षा लेकर चौदहवे वर्ष में वह अमरसिंह से अमर मुनि बन गया । जमुना पार में गंगेरू (जि० मुजफ्फर नगर) ग्राम में आपकी दीक्षा हुई थी। पूज्य मोतीराम जी महाराज ने अपने प्रिय शिष्य पूज्य पृथ्वीचन्द्र जी महाराज का शिष्य आपको बनाया । सन्त वनकर तीन लव्य आपने अपने जीवन के बनाए-संयम-साधना, ज्ञान-साधना और गुरु सेवा।
___ आपके पूज्य गुरुदेव पृथ्वीचन्द्र जी महाराज बहुत ही शान्त प्रकृति के सन्त हैं । शान्ति और सरलता आपके जीवन के सबसे बड़े गुण हैं। संस्कृत, प्राकृत, और गुजराती आदि अनेक भापाओं के आप पण्डित हैं। आगम और आगमोत्तर साहित्य का मन्थन आपने खूब किया है। आपकी प्रवचन शैली बड़ी सुन्दर, सरस एवं मधुर है। आपके दो शिप्य हैं-बड़े शिष्य उपाध्याय अमर मुनि जी और छोटे शिप्य अखिलेश मुनि जी। अखिलेश मुनि जी भी संस्कृत भाषा के पंडित हैं। व्याकरण, साहित्य, आगम आदि ग्रन्थों का आपने खूब अभ्यास किया है। परन्तु सन्त-सेवा में आपको विशेष रस आता है। सन्त-सेवा करना ही आपके जीवन का लक्ष्य बन गया है। त्याग, तपस्या और सरलता आपके विशेप सद्गुण हैं।
उपाध्याय अमर मुनि जी महाराज के दो शिष्य हैं-विजय मुनि और सुरेश मुनि ।