Book Title: Agarwal Jati Ka Prachin Itihas
Author(s): Satyaketu Vidyalankar
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Marwadi Agarwal Jatiya Kosh
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अग्रवाल जाति की उत्पत्ति
व्यक्तित्व और पृथक् भावना बनी रही। जत्र कभी उन्हें अवसर मिला, उन्होंने पुनः स्वतन्त्र होने का उद्योग किया । पर बार बार शक्तिशाली सम्राटों से कुचले जाते हुवे भी ये गण - राज्य सामाजिक दृष्टि से जीवित रहे । इसी से ये जाति या बिरादरी के रूप में अब भी जीवित हैं ।
गण राज्यों के जमाने में भी इन में बहुत कुछ वही वातावरण था, जो आजकल की जात-बिरादरियों में दिखाई पड़ता है । प्रत्येक गण अपने को ऊँचा तथा दूसरों को अपने से नीचा समझता था । शादी ब्याह अपने से नीचे गणों में नहीं हो सकते थे । विवाह सम्बन्ध या तो अपने ही अन्दर सीमित रहता था, या अपने बराबर वालों में । यही हाल भोजन के सम्बन्ध में था । नीची जाति के साथ भोजन करना प्रायः बुरा समझा जाता था । कारण यही कि प्रत्येक गण अपनी उत्कृष्टता व उच्चता का गर्व करता था । सब को अपनी रक्त की पवित्रता का बड़ा ध्यान था । राजनीतिक स्वतन्त्रता के नष्ट हो जाने के बाद भी गण के लोगों में यह सब अनुभूति जागृत रही।
अपने इन विचारों को ऐतिहासिक प्रमाणों से पुष्ट करने के लिये यह आवश्यक है, कि मैं निम्नलिखित तीन बातों पर विस्तार से विचार करूं
( १ ) भारत के प्राचीन गणराज्यों का आधार प्रायः एक जाति वंश या जन (Tribe) होता था। उनमें अपनी जाति की उच्चता की भावना बड़े प्रबल रूप से विद्यमान थी । विवाह तथा भोजन आदि में
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