Book Title: Agarwal Jati Ka Prachin Itihas
Author(s): Satyaketu Vidyalankar
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Marwadi Agarwal Jatiya Kosh
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आग्रेय गण का संस्थापक राजा अग्रसेन और संतुष्ट रहेंगे। तुम्हारा वंश सब जाति और वर्णों में सब से मुख्य रहेगा। आज से लेकर तुम्हारा यह कुल तुम्हारे नाम से प्रसिद्ध होगा
और तुम्हारी यह प्रजा अग्रवंशीया कहलायगी । मेरी पूजा तुम्हारे कुल में सदा स्थिर रहेगी और इसी लिये यह सदा वैभवपूर्ण ही रहेगा।"
इस प्रकार उच्चारण कर देवी महालक्ष्मी अन्तर्धान हो गई।
राजा अग्रसेन ने भी देवी महालक्ष्मी की आज्ञा का पालन कर यमुना-तट को त्याग दिया। वह स्थान जहां कि इन्द्र वश में किया गया था, हरिद्वार से चौदह कोस पश्चिम में गङ्गा और यमुना के बीच में स्थित था। वहां पर राजा अग्रसेन ने स्मारक बनवाया।
उसने एक नवीन नगर की भी स्थापना की । इस नगर का विस्तार बारह योजन में था । वहां उसने अपनी ही जाति के बहुत से लोगों को बसाया और करोड़ों रुपये शहर के बनाने में खर्च किये । नगर चार मुख्य सड़कों द्वारा विभक्त था । प्रत्येक सड़क के दोनों तरफ राज प्रासादों और ऊँची-ऊँची इमारतों की पंक्तियां थीं। नगर में बहुत से उद्यान और कमलों से भरे हुवे तालाब थे। नगर के ठीक बीच में देवी मह लक्ष्मी का विशाल मन्दिर था। वहां रात-दिन देवी महालक्ष्मी की पूजा होती थी।
राजा अग्रसेन ने साढ़े सतरह यज्ञ कर के मधुसूदन को संतुष्ट किया। अठारहवें यज्ञ के बीच में एक बार घोड़े का मांस अकस्मात् इस प्रकार बोल उठा-“हे राजन् ! मांस तथा मद्य के द्वारा वैकुण्ठ की जय करने का प्रयत्न मत करो। हे दयानिधि,इस मद्य मांस से रहित जीव कभी पाप से लिप्त नहीं होता।” यह सुनकर राजा अग्रसेन को मद्य मांस से घृणा हो
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