Book Title: Agarwal Jati Ka Prachin Itihas
Author(s): Satyaketu Vidyalankar
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Marwadi Agarwal Jatiya Kosh
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अग्रवाल जाति का प्राचीन इतिहास
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अतः पुरोहितों से गोत्र चलने का मत निर्विवाद रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता है ।
गोत्र का ऐतिहासिक दृष्टि से क्या अभिप्राय है, इस विषय पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। भारत के क्रियात्मक जीवन में न केवल आज कल गोत्र का बड़ा भारी महत्व है, पर प्राचीनकाल में भी इसका ऐसा ही महत्व था । मैं इस विषय पर एक नई दृष्टि से विचार करता हूँ ।
संस्कृत के प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि मुनि ने गोत्र का लक्षण इस प्रकार किया है
"अपत्यं पौत्र प्रभृति गोत्रम्" "
इसका मतलब यह है, कि पौत्र से शुरू करके सन्तति व वंशजों को गोत्र कहते हैं ।
इसे और अच्छी तरह इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है। मान लीजिये, कि गर्ग नाम का कोई आदमी है । उसका लड़का (अनन्तरापत्य = जिसके बीच में अन्य कोई सन्तति न हो ) गार्गि:- कहावेगा । गार्गिः का लड़का (या गर्ग का पोता ) गार्ग्य कहावेगा । इस गार्ग्य से शुरू करके आगे जो भी सन्तति होगी, वे सत्र गोत्र व गोत्रापत्य कहावेंगे, अनन्तरापत्य नहीं ।
पर एक समय में केवल एक ही गार्ग्य होगा । यदि गर्ग का एक से अधिक पोता हो, गार्ग्य का कोई छोटा भाई हो, तो वह गार्ग्य नहीं
1. अष्टाध्यायी ४ - १.१६२
2. श्रत इञ् (अष्टाध्यायी ४-१ - ९५ )
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