Book Title: Agarwal Jati Ka Prachin Itihas
Author(s): Satyaketu Vidyalankar
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Marwadi Agarwal Jatiya Kosh
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
१९३
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
उरु चरितम्
प्रजासु
ह्यतिवर्तन्ते
क्षितीश तव भ्रातरः
यजादयः प्रनष्टा वै याज्ञवल्क्योsaवीदिति
अस्मिन् काले प्रकृतिषु नाना क्लेशा ह्युपस्थिताः एषां तावदुपायो हि क्रियतां नृपमत्तम ॥४० याइयवल्क्यं तु भाषन्तं तदा मधुरखा गिरा तस्य वै भ्रातरः सर्वे सभायां पर्युपस्थिताः ॥ ४१ स्वापमानं तु वै वा नग्नेनैकेन साधुना क्रुद्वाश्च रक्तनेत्राश्च याइयवल्क्यमथाब्रुवन् धूर्त कि भाषसे त्वं हि इतः शीघ्रं प्रगम्यताम् अन्यथा त्वच्छिरोह्येतत् खङ्गच्छन्नं भविष्यति ॥ ४३
॥३६
॥४२
याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया- हे पृथ्वी के स्वामी ! तुम्हारे भाई प्रजा पर अत्याचार करते हैं । यज्ञ आदि भी नष्ट हो गये हैं । इस समय लोगों पर अनेक कष्ट उपस्थित हो रहे हैं । हे राजाओं में श्रेष्ठ ! तुम्हें इसका उपाय करना चाहिये । ३९-४०
|
जब याज्ञवल्क्य अपनी मधुर वाणी से ये बातें कर रहे थे, उसी समय ( रंग के ) भाई सभा में आ उपस्थित हुवे । ४१
For Private and Personal Use Only
एक नंगे साधु से अपना अपमान सुन कर वे बड़े क्रुद्ध हुवे और लाल लाल आंखें कर याज्ञवल्क्य को इस प्रकार बोले- ऐ धूर्त ! तू क्या बोलता है। यहां से शीघ्र चला जा । श्रन्यथा, तेरा सिर तलवार से काट दिया जायगा ४२-४३