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उरु चरितम्
प्रजासु
ह्यतिवर्तन्ते
क्षितीश तव भ्रातरः
यजादयः प्रनष्टा वै याज्ञवल्क्योsaवीदिति
अस्मिन् काले प्रकृतिषु नाना क्लेशा ह्युपस्थिताः एषां तावदुपायो हि क्रियतां नृपमत्तम ॥४० याइयवल्क्यं तु भाषन्तं तदा मधुरखा गिरा तस्य वै भ्रातरः सर्वे सभायां पर्युपस्थिताः ॥ ४१ स्वापमानं तु वै वा नग्नेनैकेन साधुना क्रुद्वाश्च रक्तनेत्राश्च याइयवल्क्यमथाब्रुवन् धूर्त कि भाषसे त्वं हि इतः शीघ्रं प्रगम्यताम् अन्यथा त्वच्छिरोह्येतत् खङ्गच्छन्नं भविष्यति ॥ ४३
॥३६
॥४२
याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया- हे पृथ्वी के स्वामी ! तुम्हारे भाई प्रजा पर अत्याचार करते हैं । यज्ञ आदि भी नष्ट हो गये हैं । इस समय लोगों पर अनेक कष्ट उपस्थित हो रहे हैं । हे राजाओं में श्रेष्ठ ! तुम्हें इसका उपाय करना चाहिये । ३९-४०
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जब याज्ञवल्क्य अपनी मधुर वाणी से ये बातें कर रहे थे, उसी समय ( रंग के ) भाई सभा में आ उपस्थित हुवे । ४१
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एक नंगे साधु से अपना अपमान सुन कर वे बड़े क्रुद्ध हुवे और लाल लाल आंखें कर याज्ञवल्क्य को इस प्रकार बोले- ऐ धूर्त ! तू क्या बोलता है। यहां से शीघ्र चला जा । श्रन्यथा, तेरा सिर तलवार से काट दिया जायगा ४२-४३