Book Title: Agarwal Jati Ka Prachin Itihas
Author(s): Satyaketu Vidyalankar
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Marwadi Agarwal Jatiya Kosh
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अग्रवाल जाति का प्राचीन इतिहास
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जो इतना कष्ट किया है, इतने शब्द संगृहीत किये हैं, उसका कुछ विशेष हेतु होना चाहिये । हमें मालूम है, कि पाणिनि मुनि के समय में भारत में बहुत से गण व संघ राज्य विद्यमान थे । श्री काशी प्रसाद जायसवाल ने अष्टाध्यायी के आधार पर तत्कालीन बहुत से गणराज्यों की सत्ता सिद्ध की हैं ।' इन गणराज्यों का शासन प्रायः श्रेणितन्त्र ( Aristocracy या Oligarchy ) होता था । गण सभा में विविध कुलों के प्रतिनिधि एकत्र होते थे, और राज्य कार्य की चिन्ता करते थे । ये प्रतिनिधि वोटों द्वारा नहीं चुने जाते थे, अपितु प्रत्येक कुल का नेतृत्व उसका मुखिया ( गोत्रापत्य या वृद्ध 2 ) करता था । इसलिये एक कुल में एक समय एक ही गोत्रापत्य व वृद्ध होता था, उस कुल के बाकी सब आदमी युवापत्य कहाते थे । कुल के इस वृद्ध की विशेष संज्ञा होती थी, जैसे गर्ग द्वारा स्थापित कुल के गोत्रापत्य व वृद्ध की विशेष संज्ञा गाग्यै थी, उसी कुल के शेष सब लोग गार्ग्यायण कहाते थे
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पाणिनि का गोत्र से यही अभिप्राय हैं । संक्षेप से हम यूं कह सकते हैं, कि एक गोत्रकृत् ( जिस आदमी का अपना पृथक् गोत्र चला हो ) के सब वंशज --- उसके अपने लड़के (अनन्तरापत्य) को छोड़कर - गोत्र कहावेंगे, उनमें दो भेद होंगे, गोत्रापत्य ( जो विद्यमान सन्तति में सब से वृद्ध हो ) और युवापत्य ।
इस विवेचना के बाद हम धर्मसूत्रों व स्मृतियों में वर्णित गोत्र पर विचार करते हैं । हम अभी लिख चुके हैं, कि बौधायन के अनुसार शुरू
1. K. P. Jayaswal, Hindu Polity, Vol. I Chap. IV-X 2. वृद्धस्य च पूजायाम् ( श्रष्टाध्यायी ४, १, १६६ )
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