Book Title: Agarwal Jati Ka Prachin Itihas
Author(s): Satyaketu Vidyalankar
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Marwadi Agarwal Jatiya Kosh
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१३७
वालों के गोत्र
ऐसा ऋषि हुवा हो, जिसने वैदिक मन्त्रों का निर्माण किया हो, और वेद मन्त्रों द्वारा अग्नि की स्तुति की हो, तो उसे उस वंश का 'प्रवर' कहते हैं। जब कोई आदमी कोई धार्मिक कृत्य करने बैठता है, तो वह अपने प्रवर ऋषि का नाम लेकर अग्नि को यह स्मरण दिलाता है, कि मेरे इस पूर्वज ने वैदिक मन्त्रों द्वारा आपकी स्तुति की थी, और मैं उसी ऋषि की सन्तान हूँ । प्रवरों की संख्या पचास से कम है । वैदिक मन्त्रों की रचना एक विशेष काल के बाद समाप्त हो गई थी । इसलिये प्रवर ऋषियों की संख्या निश्चित रही और पचास से ऊपर न बढ़ सकी । पर गोत्र ऋषियों के लिये ऐसी कोई रुकावट न थी । कोई भी प्रतापी व्यक्ति जिसने अपनी पृथक् सत्ता कायम की, जिसने अपने कुल से पृथक् हो नया कुल बनाया, वह नया गांवकृत् हो गया । इस तरह गोत्रों की संख्या बढ़ती ही गई । यही कारण हैं, कि आजकल हजारों गोत्र पाये जाते हैं
3
इस सम्बन्ध में हमें वंशकृत् और गोत्रकृत् का भेद भी दृष्टि में रखना चाहिये | महाभारत में कुछ मनुष्यों को वंशकृत्, बंशकर या पृथक् वंशकर्ता के नाम से कहा गया है। ऐसे ही दूसरे कुछ मनुष्य गोत्रकृत् कहाये हैं। इनमें क्या भेद था ? वंशकृत् केवल राजा ही होते थे। जब कोई प्रतापी राजकुमार व अन्य व्यक्ति अपना कोई पृथक् राज्य कायम कर अपना नया वश चलाता था, तो उसे पृथक् वंशकर्ता या वंशकर कहते थे । इसके विपरीत, जब राज्य के अन्दर कोई प्रतापी मनुष्य अपना नया कुल, नया घराना पृथक् रूप से कायम करता था, या नये
I
For Private and Personal Use Only