Book Title: Agarwal Jati Ka Prachin Itihas
Author(s): Satyaketu Vidyalankar
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Marwadi Agarwal Jatiya Kosh
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___ आग्रेय गण का संस्थापक राजा अग्रसेन
शयनागार में इसी प्रश्न पर विचार करता रहा। सुबह वह समय पर यज्ञ में शामिल नहीं हुवा । याज्ञिक लोग प्रतीक्षा कर रहे थे । आपस में पूछते थे, 'आज क्या बात हो गई जो राजा नहीं पधारे, एक पहर इसी प्रतीक्षा में बीत गया, आखिर पण्डितों ने शूरसेन को राजा को बुलाने के लिये भेजा । शूरसेन ने देखा कि उसका भाई बहुत दुखी है। उसने हाथ जोड़ कर अग्रसेन से कहा, 'क्या कारण है, जो इस असमय में
आप इतने दुखी हैं । अापकी इस उदासीनता का क्या हेतु है ?' इस पर अग्रसेन ने उत्तर दिया, 'वैश्यों का कर्तव्य तो पशु-रक्षा और पशुपालन है । हिंसा करना बड़ा भारी पाप है, और वैश्यों के लिये इसका निषेध किया गया है । मैंने बड़ी गलती की, जो यज्ञ में पशु हिंसा की। न जाने इसका क्या फल मुझे भगवान देगा। न जाने मुझे कितने जन्म-जन्मान्तर नरक में बसना पड़ेगा। इस हिंसामय यज्ञ को बन्द करो। इसी में हमारा श्रेय है ।' यह सुन कर शूरसेन ने उत्तर दिया'हे दुखियों पर दयालु, मेरे वचन को सुनो, अब केवल एक यज्ञ शेष बचा है । उसे पूर्ण कर लेना ही अच्छा है । फिर यश नहीं करना, यही मेरी भी सम्मति है। यज्ञ का समय टल रहा है। इसलिये शीघ्र ही वहां जाना चाहिये।
इस पर अग्रसेन ने कहा 'तुम समझदार होकर भी ऐसी बात मुझे क्यों कहते हो । मनुष्य को जहां तक भी हो, पापकर्म से बचना चाहिये। जितना भी वह पाप से बचेगा उतना ही उसका कल्याण होगा। पशुहिंसा बड़ा पाप है । तुम्हें भी उसे रोक देना चाहिये । मेरी बात
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