Book Title: Agarwal Jati Ka Prachin Itihas
Author(s): Satyaketu Vidyalankar
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Marwadi Agarwal Jatiya Kosh
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अग्रवाल जाति की उत्पत्ति
अनेक राज्यों का उल्लेख है । कुछ के नाम निम्न लिखित हैं- योन, कम्भोज, नाभक, नाभपंक्ति और भोज ।'
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इन विविध अधीनस्थ राज्यों में अपने अपने रीतिरिवाज तथा कानून प्रचलित थे । मौर्य सम्राट् उन्हें न केवल स्वीकार ही करते थे, अपितु साम्राज्य के कानून का अंग मानते थे । यही कारण है, कि इन विविध स्थानीय कानूनों को राजकीय रजिस्टरों में रजिस्टर्ड ( निबन्धपुस्तकस्थ ) करने की व्यवस्था की गई है । अर्थशास्त्र में लिखा है, कि देश, ग्राम, जाति कुल आदि विविध संघों के अपने अपने धर्म, व्यवहार, चरित्र आदि को निबन्ध पुस्तकों में उल्लिखित किया जाय । न्यायालयों में इन स्थानीय कानूनों को दृष्टि में रखा जाता था ।
मौर्य साम्राज्य के निर्बल होने पर भारतीय इतिहास में केन्द्रीभाव ( Decentralisation ) की प्रवृत्ति फिर प्रबल हुई । इसके साथ ही बहुत से गण राज्य स्वतन्त्र हो गये । यौधेय, मालव, शिव आदि अनेक पुराने गणराज्यों ने फिर से अपनी स्वतन्त्रता प्राप्त की । शुङ्ग वंश के शासन काल में न केवल ये पुराने राज्य स्वतन्त्र हुवे, पर कुछ ऐसे राज्य भी स्थापित हुवे, जिनका प्राचीन इतिहास में उल्लेख नहीं मिलता । मौर्यों के पतन के बाद इन गण राज्यों की शक्ति बहुत बढ़ी चढ़ी थी । शुङ्ग और आन्ध्रवंश ( भारत के ) तथा बैक्ट्रियन, कुशान आदि विदेशी आक्रान्ता कोई भी इन्हें पूरी तरह विजय न कर सके ।
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1. अशोक के चतुर्दश शिलालेख नं० ५ और १३
2. देश ग्राम जाति कुल संघातानां धर्म व्यवहार चरित्र संस्थानं निबन्धपुस्तकस्थं कारयेत् कौटलीय अर्थशास्त्र 11, 7
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