Book Title: Agarwal Jati Ka Prachin Itihas
Author(s): Satyaketu Vidyalankar
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Marwadi Agarwal Jatiya Kosh
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अग्रवाल जाति की उत्पत्ति
पूर्व भारत में प्रायः सभी राज्य–चाहे उनमें वंशाक्रमानुगत राजाओं का शासन हो, चाहे किसी अन्य प्रकार का शासन हो—इसी तरह के जन-राज्य ( जानराज्य ) थे । राज्य का निर्माण जन से होता था । यदि कोई दूसरा राजा अधिक शक्तिशाली हो, हमला करके देश को जीत ले, तो कोई विशेष हानि नहीं । जनता उस देश को छोड़कर कहीं और जाकर बस सकती थी । देश छिन जाने पर भी राज्य जीवित रह सकता था । उस जमीन का महत्व नहीं था, जिस पर जन बसता था। महत्व जन का था । एक राज्य में एक ही जन (जाति) का प्राधान्य होता था । यह मतलब नहीं, कि दूसरे लोग बसते ही न थे। वे बसते थे, पर शूद्र व दास की हैसियत में । वे राज्य के अङ्ग न होते थे। राज्य में बसते हुये भी वे उससे बाहर समझे जाते थे, क्योंकि राज्य में प्रधानभूत जन में वे सम्मिलित न थे । राज्य जन का था, अतः वे उसमें बहिष्कृत से रहते थे। __इन गणों व जन-राज्यों में अपनी जातीय उत्कृष्टता का भाव बड़ा प्रबल था । उदाहरण के तौर पर शाक्यों को लीजिये। बौद्ध ग्रन्थों में कथा आती है, कि कोशल के राजा पसेनदी (संस्कृत, प्रसेनजित् ) ने शाक्यों की एक राजकुमारी से विवाह करने की इच्छा प्रगट की । उसने यह सन्देश लेकर अपना राजदूत शाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु में भेजा । राजा पसेनदी के प्रस्ताव पर विचार करने के लिये शाक्य लोग सन्थागार ( सभा भवन ) में एकत्रित हुवे । शाक्यों का विचार था, कि पसेनदी के साथ अपनी राजकुमारी को विवाहित करना अपनी प्रतिष्ठा व आत्माभिमान से नीचे है । पर वे यह साहस भी न कर सकते कि
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