Book Title: Agam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 12
________________ नमः श्री वीतरागाय । श्री जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी महाराज विरचित-सूर्यज्ञप्तिप्रकाशिका टीकया समलङ्कृतम् ॥ श्री-सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रम् ॥ (द्वितीयो भागः) अथ दशमस्य प्राभृतस्य विंशतितमं प्राभृतप्राभृतम् प्रारभ्यते मूलम्-ता कइ णं भंते ! संवच्छरे आहिएति वएज्जा ! ता पंच संवच्छरा आहिएति वएज्जा । तं जहा-णक्खत्तसंवच्छरे जुगसंवच्चरे पमाणसंवच्छ लक्खणसंवच्छरे सणिच्छरसंवच्छरे ॥सू० ५४॥ छाया-तावत् कति खलु भदन्त ! संवत्सरा आख्याता इति वदेत् । तावत् पश्चसम्वत्सरा आख्याता इति वदेत् , तद्यथा नक्षत्रसंवत्सरः युगसंवत्सरः प्रमाणसंवत्सरः लक्षणसंवत्सरः शनैश्चरसंवत्सरः ।। सू० ५४ ॥ टीका-'योगे किं ते वस्तु आख्यात' मित्याख्यस्य दशमस्य प्राभृतस्यैकोनविंशतितमे प्राभृतप्राभृते द्वादशमासानां लौकिकानि लोकोत्तराणि च नामधेयानि प्रतिपाद्य सम्प्रति संप्रवृत्तेऽस्मिन् विंशतितमे प्राभृतप्राभृतेऽर्थाधिकारसूत्रे पञ्चसम्वत्सराणां नामधेयान्यभिधित्सुराह प्रश्नोत्तरसूत्रं 'ता कइ णं भंते' इत्यादिना । 'ता कइणं भंते ! संवच्छरे आहिएति वएजा' तावत् कति खलु भदन्त ! संवत्सरा आख्याता इति वदेत् । तावत्-मासानां द्विवि बीसवां प्राभृतप्राभृत प्रारंभ टीकार्थ-(योगे किं ते वस्तु आख्यात) इस विषय संबंधी दसवें प्राभृत का उन्नीसवें प्राभृतप्राभृत में बारह मासों के लोंकिक एवं लोकोत्तरीय नाम प्रतिपादित कर के अब प्रवर्तमान इस वीसवें प्राभृतप्राभृत के अर्थाधिकार सूत्र में पांच संवत्सरों के नाम जानने के भाव से (ता कइ णं भंते) इत्यादि प्रश्न सूत्र कहते हैं-श्री गौतमस्वामी पूछते हैं-(ता कइ णं भंते ! संवच्छरे आहिऐति वएजा) दोनों प्रकार के मासों के नाम से ज्ञात होकर अब गौतमस्वामी વીસમા પ્રાભૂતપ્રાભૂતને પ્રારંભ ___ -(योगे कि ते वस्तु आख्योत) ॥ विषयना संप मां समा प्राकृतना ઓગણીસમા પ્રાભૃતપ્રાકૃતમાં બાર મહિનાઓના લૌકિક અને લોકોત્તરીય નામ પ્રદર્શિત કરીને હવે પ્રવર્તમાન આ વીસમાં પ્રાભૃતપ્રાભૃતના અર્વાધિકાર સૂત્રમાં પાંચ સંવત્સરોના नाभा orgaानी थी (ता कइ णं भंते संवच्छरे) Uत्याहि प्रश्न सूत्र ४९ छ. श्री गीत. भस्वामी पूछे छे 3-(ता कइ णं भंते ! संवच्छरे आहिएत्ति वएज्जा) मन्ने ४२॥ मही. म० १ શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર: ૨

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