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मुक्ति का मार्ग | २६ सकता है ? इस भूमि और आकाश का परित्याग भी वह कैसे कर सकेगा? तब फिर उसने क्या छोड़ा? हम वैराग्य की भाषा में यह कहते हैं कि एक वैराग्यशील ज्ञानी ने संसार को छोड़ दिया, किन्तु इस परित्याग का क्या अर्थ है । संसार छोड़कद वह कहाँ चला गया? और उसने छोड़ा भी क्या है ? वही शरीर रहा, वस्त्र भी वही रहा, भले ही उसकी बनावट में कुछ परिवर्तन आ गया हो ? एक गृहस्थ की वेशभूषा के स्थान पर एक साधू का वेश आ गया हो ? शरीर पोषण के लिए वही भोजन, वही जल और वही वायु रहा, तब संसार छोड़ने का क्या अर्थ हुआ ? इससे यह स्पष्ट होता है, कि यह सब कुछ संसार नहीं है । तब संसार क्या है ? अध्यात्म-भाषा में यह कहा जाता है, कि वैषयिक आकांक्षाओं, कामनाओं और इच्छाओं का हृदय में जो अनन्त काल से आवास है, वस्तुतः वही संसार है, वस्तुतः वही बन्धन है । उस आकांक्षा का नाम और वासना का परित्याग ही सच्चा वैराग्य है । कामनाओं की दासता से मुक्त होना ही संसार से मुक्त होना है। जब साधक के चित्त में आनन्द की उपलब्धि होती है, जब उसके जीवन में निराकुलता की भावना आती है, जब साधक के जीवन में व्याकुलता-रहित शान्त स्थिति आती है और यह आकुलता एवं व्याकुलता-रहित अवस्था जितने काल के लिए चित्त में बनी रहती है, शुद्ध आनन्द का वह एक मधुर क्षण भी मानव जीवन की क्षणिक मुक्ति ही है। भले ही आज वह स्थायी न हो और साधक का उस पर पूर्ण अधिकार न हो पाया हो, परन्तु जिस दिन वह उस क्षणिकता को स्थायित्व में वदलकर मुक्ति पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लेगा, उसी दिन, उसी क्षण उसकी पूर्ण मुक्ति हो जायगी । जो अध्यात्म-साधक शरीर में रहकर भी शरीर में नहीं रहता, जो जीवन में रह कर भी जीवन में नहीं रहता और जो संसार में रहकर भी संसार में नहीं रहता, वही वस्तुतः विमुक्त आत्मा है। देह के रहते हुए भी, देह की ममता में बद्ध न होना, सच्ची मुक्ति है। जो देह में रह कर भी देह-भाव में आसक्त न होकर देहातीत अवस्था में पहुँच जाता है, वही अरिहत है, वही जिन है और वही वीतराग है। अध्यात्म-दर्शन साधक को जगत से भागने-फिरने की शिक्षा नहीं देता, वह तो कहता है कि तुम प्रारब्ध कर्मजन्य भोग में रहकर भो भोग के बिकारों और विकल्पों के बन्धन से मुक्त होकर रहो, यही जीवन की
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