________________
२८ | अध्यात्म-प्रवचन
किया जाए। इसकी दर्शन - शास्त्र में अरिहंत दशा एवं जीवन्मुक्त अवस्था कहा जाता है । जीवन्मुक्ति का अर्थ है - जीवन के रहते हुए ही, शरीर और श्वासों के चलते हुए ही, काम-क्रोध आदि विकारों से यह आत्मा सर्वथा मुक्त हो जाए । काम-क्रोध आदि विकार भी रहें और मुक्ति भी मिल जाए, यह किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है । जैन दर्शन के अनुसार राग एवं द्वेष आदि कषायों को सर्वथा क्षय कर देना ही मुक्ति है ।
मोक्ष क्या है, यह एक चिरन्तन प्रश्न है । यह प्रश्न लाखों वर्षों से होता चला आया है और लाखों वर्षों तक होता रहेगा । आत्मवादी दर्शन के समक्ष दो ही ध्रुव केन्द्र हैं- आत्मा और उसकी मुक्ति । मोक्ष क्या वस्तु है ? इस प्रश्न के उत्तर में अध्यात्मवादी दर्शन घूमफिर कर एक ही बात और एक ही स्वर में कहते हैं कि मोक्ष आत्मा की उस विशुद्ध स्थिति का नाम है-जहाँ आत्मा सर्वथा अमल एवं धवल हो जाता है । मोक्ष में एवं मुक्ति में जीवन का विसर्जन न होकर उसके प्रति मानव-बुद्धि में जो एक प्रकार का मिथ्या दृष्टिकोण है, उसी का विसर्जन होता है । मिथ्या दृष्टिकोण का विसर्जन हो जाना, साधक जीवन की एक बहुत बड़ी उत्क्रांति है । जैन वर्शन के अनुसार मिथ्यात्व के स्थान पर सम्यक् दर्शन का, मिथ्या ज्ञान के स्थान पर सम्यक् ज्ञान का और मिथ्या चरित्र के स्थान पर सम्यक् चारित्र का पूर्णतया एवं सर्वतो भावेन विकास हो जाना ही मोक्ष एवं मुक्ति है । मोक्ष को जब आत्मा की विशुद्ध स्थिति स्वीकार कर लिया जाता है, तब मोक्ष के विपरीत आत्मा की अशुद्ध स्थिति को ही संसार कहा जाता है । संसार क्या है ? यह भी एक विकट प्रश्न है । स्थूल रूप मैं संसार का अर्थं आकाश, पाताल, सूर्य, चन्द्र, भूमि, वायु, जल और अग्नि आदि समझा जाता है । परन्तु क्या वस्तुतः अध्यात्म-भाषा में यही संसार है ? क्या अध्यात्म - शास्त्र इन सब को छोड़ने की बात कहता है ? क्या यह सम्भव है, कि भौतिक जीवन के रहते इन भौतिक तत्वों को छोड़ा जा सके ? पूर्ण अध्यात्मिक जीवन में भी, मोक्ष में भी आत्मा रहेगा तो लोक में ही, लोकाकाश में ही । लोकाकाश के बाहर कहाँ जाएगा ? जब एक व्यक्ति वैराग्य की भाषा में संसार छोड़ने की बात कहता है, तब वह क्या छोड़ता है ? अशन, वसन और भोजन इनमें से वह क्या छोड़ सकता है ? कल्पना कीजिए, कदाचित् इनको भी वह छोड़ दे, फिर भी अपने तन और मन को वह कैसे छोड़
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org