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अभिनव प्राकृत-व्याकरण इस प्रकार कण्ठ्य, मूर्धन्य, तालव्य, दन्त्य और ओष्ठ्य इन पांचों स्पर्श वर्गों में से प्रत्येक वर्ग के निम्न पांच भेद होते हैं
१ अघोष अल्पप्राण-क, त, प आदि। २. अघोष महाप्राण-ख, थ, फ आदि । ३. घोष अल्पप्राण-ग, ६, व आदि । ४. घोष महाप्राण-घ, ध, भ आदि।
५. अनुनासिक या घोष अल्पप्राण अनुनासिक-ङ, न, म आदि । स्व संज्ञा-जिस वर्ण का जिस वर्ण के साथ तालु आदि स्थान और आभ्यन्त र प्रयत्न एक हो, वह वर्ण स्व या सवर्ण संज्ञक होता है।'
विभक्ति संज्ञाएँ-सु आदि विभक्तियों में अन्त्य इत्संज्ञक वर्ण के साथ उच्चरित आदि वर्ण अपने तथा मध्यवर्ती वर्गों का भी बोधक होता है। जैसे प्रथमा विभक्ति में सु और जस् की सस् संज्ञा, द्वितीया विभक्ति में अम् और शस् की अस् संज्ञा, तृतीया विभक्ति में टा और भिस् की टास संज्ञा, चतुर्थी विभक्ति में 3 और भ्यस् की डेस् संज्ञा, पंचमी में सि और भ्यस् की उसिस् संज्ञा, षष्ठी में ङस् और आम् की उम् संज्ञा एवं सप्तमी में ङि और सुप की डिप् संज्ञा होती है।
ह संज्ञा-हस्व वर्गों की "ह" संज्ञा होती है। - दि संज्ञा दीर्घ वर्णो की "दि” संज्ञा होती है। स संज्ञा-समास की "स" संज्ञा होती है। शु संज्ञा-श, ष और स की "शु" संज्ञा होती है।
खु संज्ञा -आदि वर्ण की "खु” संज्ञा होती है। यथा “खोः कन्दुक-" इत्यादि में खुशब्द से आदि वर्ण का बोध होता है।
स्तु संज्ञा-दो संयुक्त व्यञ्जनों की "स्तु" संज्ञा होती है। __ग संज्ञा -गणप्रधान जो आदि शब्द होता है, उसकी "ग" संज्ञा होती है। जैसे- 'क्लीवे गुणगाः' में गुणगा शब्द गुणादि का बोधक है ।
फु संज्ञा-शब्द के द्वितीय वर्ण की “फु" संज्ञा होती है। तु संज्ञा"-विकल्प विधान की "तु" संज्ञा होती है ।
१. तुल्यस्थानस्य प्रयत्नः स्वः १।१।१७ हे०। २. सुप्स्वादिरन्त्यहला १।१।४ त्रि० । ३. हो ह्रस्वः १।१।५ त्रि० ।
४. दि दीर्घः १।१।६ त्रि० । ५. सः समासः १।१७ त्रि० ।
६. शषसाः शुः १११८ त्रि० । ७. प्रादिः वुः १।१।६ त्रि० ।
८. संयुक्तं स्तु १।१।१२ त्रि० । ६. गा गणपरः १।१।१० त्रि० । १०. द्वितीयः फु: १।१।११ त्रि० । ११. तु विकल्पे १।१।१३ त्रि० ।