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शरण में जाना-बहुत महत्त्व का सूत्र है। प्रश्न है-किसकी शरण में जाना? और किसी दूसरे की शरण में जाने की जरूरत नहीं है, अपनी ही शक्ति की शरण में जाना है या हमें उसकी शरण में जाना है जो अनन्त-ज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्त-आनन्द और अनन्त-शक्ति का धनी है। जिसमें ये चारों अनन्त प्रस्फटित हो चुके हैं, उसकी शरण में जाना है, जिसमें ये बीज अंकुरित हो चुके हैं, पल्लवित, पुष्पित और फलित हो चुके हैं, उसकी शरण में जाना है। किसी व्यक्ति विशेष की शरण में नहीं जाना है। इस अनन्त चतुष्टयी की शरण में जाना है। जब यह शरण उपलब्ध हो जाती है तब तैजस् शक्ति का विकास होता है। उस समय विद्युत् की इतनी तीव्र तरंगें उपलब्ध होती हैं कि रूपान्तरण का क्रम प्रारंभ हो जाता है।
एक सूफी संत थे-संत खैयाद। बहुत बड़े साधक थे। जा रहे थे घोर जंगल से। शिष्य साथ में था। समय हुआ और वे नमाज पढ़ने बैठे। कंबल बिछाया। उस पर बैठ गए। शिष्य भी बैठ गया। इतने में शेर के दहाड़ने की आवाज आयी। शिष्य डरा। उसने अपना कंबल समेटा और वह तत्काल पेड़ पर चढ़कर बैठ गया। किन्तु संत खैयाद अविचल भाव से वैसे ही बैठे रहे। नमाज पढ़ते रहे। शेर वहां आ पहुंचा। आस-पास में सूंघकर चला गया। नमाज पूरी हुई। शिष्य पेड़ से उतरकर नीचे आया। दोनों आगे बढ़ गए। जा रहे थे। इतने में एक जंगली कुत्ता सामने आ गया। जैसे ही कुत्ता सामने आया, संत खैयाद ने अपना डंडा संभाला और डंडा लेकर प्रतिरोध की मुद्रा में खड़े हो गए। शिष्य देखता रहा। वह पूछ बैठा-'गुरुदेव! यह क्या? जब शेर आया तब तो आप अविचल भाव से बैठे रहे और एक कुत्ता सामने आया तो आप प्रतिरोध की मुद्रा में खड़े हो गए। मैं रहस्य समझ नहीं पाया। संत खैयाद बोले- 'उस समय खुदा मेरे साथ था और अब तुम मेरे साथ हो। उस समय मैं परम आत्मा की शरण में था, खुदा मेरी रक्षा कर रहा था। अब तुम मनुष्य मेरे साथ हो।'
सचमुच जब हम अनन्त की शरण में जाते हैं, अनन्त-चतुष्टयी की शरण में चले जाते हैं, तब अनन्त-चतुष्टयी के स्पंदन से तैजस् शरीर ६४ आभामंडल
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