________________
में राग और द्वेष दो नहीं हैं। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यदि आप राग न करें तो द्वेष कभी नहीं होगा। द्वेष का कोई स्थान नहीं है। मूर्छा से राग, राग से लोभ, लोभ से माया, माया से अभिमान और अभिमान से क्रोध। द्वेष का कोई स्थान ही नहीं है। पदार्थ या व्यक्ति के प्रति हमारी प्रीति हो गई, लोभ हो गया, माया का जाल बुन लिया गया। सारा राग ही राग चलता है। हमने जो माया का ताना-बाना बुना
और यदि उसमें कोई व्यक्ति बाधा डालता है तब अप्रीति शुरू होती है। अप्रीति का घटक है अहंकार। यदि प्रीति ही चलती तो बड़े-छोटे का भेद खड़ा नहीं होता। बड़ा-छोटा मानने के लिए अप्रीति का होना जरूरी है। अप्रीति का जन्म होता है अभिमान से और उसका जो दूसरा बड़ा चरण है, वह है क्रोध । क्रोध और अहंकार-ये दो द्वेष हैं, अप्रीतियां हैं, किन्तु अप्रीति का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। प्रीति ही अप्रीति बन जाती है। अहंकार और क्रोध के चक्र में आकर प्रीति ही अप्रीति बन जाती है। जब हमारे राग-भाव में कोई बाधा उत्पन्न होती है तब प्रीति अप्रीति बन जाती है। अप्रीति का अर्थ है-प्रीति की बाधा। अप्रीति का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। हम अप्रीति को मिटाने का प्रयत्न न करें, उसके बारे में अधिक चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। जहां चिन्तित होना है, जागना है, वह है राग, प्रीति। वही है आदि-बिन्दु जहां हमें जागना है। अध्यात्म के साधक को जिस बिन्दु पर जागना है वह बिन्दु है : राग। जो व्यक्ति राग के बिन्दु पर नहीं जागता, प्रियता के बिन्दु पर नहीं जागता, वह यथार्थ में साधक नहीं बन सकता। आप यह न माने कि जो साधक बनता है, ध्यान करता है, ध्यान की दिशा को बदलता है-आर्त और रौद्र ध्यान से हटकर धर्म-ध्यान में प्रवेश करता है-वह पदार्थ से विमुख हो जाता है। ऐसा नहीं होता। क्या ध्यान करने वाला व्यक्ति गृहस्थी को नहीं निभायेगा? रोटी नहीं खाएगा? पानी नहीं पीएगा? कपड़े नहीं पहनेगा? मकान नहीं बनाएगा? परिवार का भरण-पोषण नहीं करेगा? क्या उसके पत्नी नहीं होगी? पुत्र-पुत्री नहीं होंगे? सब कुछ होते हैं। ध्यान करने वाले सारे साधक संन्यासी नहीं होते, गृहस्थ भी होते हैं। संन्यासी के लिए भी बहुत पदार्थ आवश्यक होते हैं। वह भी
तनाव और ध्यान (२) १४७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org