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होने लग जाता है।
लेश्या के सिद्धान्त में बताया गया है कि कृष्ण-लेश्या नील-लेश्या के भावों को प्राप्त कर नील-लेश्या में बदल जाती है। नील-लेश्या कापोत-लेश्या के भावों को प्राप्त कर कापोत-लेश्या में बदल जाती है। इसी प्रकार कापोत-लेश्या तेजो-लेश्या में, तेजो-लेश्या, पद्म-लेश्या में और पद्म-लेश्या शुक्ल-लेश्या में बदल जाती है।
दूध में दही डाला, दूध दही बन गया। सफेद कपड़े को जिस रंग से रंगा, वह उसी रंग का बन गया। सफेद कपड़ा काला, नीला, पीला, लाल, बैंगनी-सभी रंगों का बन जाता है। बैडूर्यमणि काले धागे में पिरोने से काली झाईं वाला, नीले धागे में पिरोने से नीली झाईं वाला और लाल धागे में पिरोने से लाल झाईं वाला हो जाता है। स्फटिक के सामने जैसा रंग आता है वैसा ही प्रतिबिम्बित हो जाता है। इसी प्रकार हमारी लेश्याएं भी भावों के परिवर्तन के साथ-साथ बदलती रहती हैं। जैसे-जैसे लेश्याएं बदलती हैं, वैसे-वैसे हमारा आभामंडल भी बदलता रहता है।
हम लेश्याओं का परिवर्तन कर अपनी वृत्तियों को बदल सकते हैं, उनका संशोधन कर सकते हैं। इस प्रक्रिया से हम काम-केन्द्र का भी शोधन कर सकते हैं। उसे ऐसा निर्मल बना सकते हैं कि वहां काम और क्रोध की वृत्तियां आएं पर जाग न पाएं, सक्रिय न बन पाएं। वह इतना निर्मल बन जाएगा कि वृत्तियां उभरेंगी ही नहीं। वहां एक ऐसा मैग्नेटिक फील्ड-चुम्बकीय क्षेत्र बन जाता है कि फिर उन निम्न वृत्तियों को वहां स्थान ही नहीं मिलता। वृत्तियां जागें पर भीतर ही विलीन हो जाएं-यह ऊर्जा की ऊर्ध्वयात्रा से ही संभव है। हम ध्यान-साधना के द्वारा वृत्तियों का दमन नहीं करते, किन्तु ऊर्जा को ऊर्ध्व पथ मे प्रवाहित कर उनको विलीन कर देते हैं। जब हमारी ऊर्जा ज्ञान-केन्द्र में जाती है, तब सारी निम्न वृत्तियां समाप्त हो जाती हैं। थायराइड कंठमणि, पिच्यूटरी, पिनियल, विशुद्धि-केन्द्र, दर्शन-केन्द्र, ज्योति-केन्द्र शक्ति-केन्द्र-ये सब ज्ञान-केन्द्र हैं, ज्ञान के भाग हैं। ऊर्जा ऊपर उठकर इन केन्द्रों को सक्रिय करती है। जब ये केन्द्र सक्रिय होते हैं, तब वृत्तिय
आभामंडल १६५
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