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उपवास के द्वारा ऐसे रसायन उत्पन्न होते हैं जो शारीरिक बीमारी को शान्त करते हैं। उपवास स्वयं एक चिकित्सा पद्धति है । प्राचीनकाल में उपवास का प्रयोग चिकित्सा के रूप में किया जाता था । वर्तमान में इस चिकित्सात्मक दृष्टिकोण से लोग कम परिचित हैं। पश्चिम के लोगों ने इस पर अनेक अनुसंधान किए, प्रयोग किए और उपवास की चिकित्सा पद्धति का विधिवत् विधान किया। आज उपवास की चिकित्सा प्रचलित है। उपवास के विधिवत् प्रयोगों से अनेक रोग शान्त किए जाते हैं । कारण एक ही है, उपवास के द्वारा रासायनिक परिवर्तन होता है और रोग शान्त हो जाते हैं। कुछ व्यक्ति पक्षाघात से पीड़ित थे । उन्होंने आठ दिन का चौविहार (निर्जल ) उपवास किया और वे ठीक हो गए। आयंबिल के द्वारा अनेक बीमारियां शान्त होती हैं। इसी प्रकार और भी अनेक प्रयोग किए जाते हैं-आयंबिल, एकान्तर, उपवास, आठ दिन का उपवास, पांच दिन का उपवास, कम खाने का प्रयोग, कम वस्तुएं खाना, कम बार खाना - ये सारे प्रयोग शारीरिक रसायनों में परिवर्तन लाते हैं।
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हम दिल्ली में थे । सौराष्ट्र का एक व्यक्ति आया । वह कोरे चावल खाता था । सौ ग्राम चावल खाकर वह पांच-सात लोटा पानी पी लेता था। उसने कहा- 'मैंने इस प्रयोग के द्वारा कैंसर जैसे असाध्य रोगों को भी मिटाया है ।'
इन सारी स्थितियों से यह स्पष्ट है कि उपवास, तपस्या, संयम और आसनों के द्वारा रासायनिक परिवर्तन घटित होता है । प्रायश्चित्त के द्वारा भी रसायनों में परिवर्तन आता है। जब व्यक्ति के मन में प्रायश्चित्त की निर्मल भावना जागती है तब पुरानी ग्रन्थियां खुलती हैं। आज की मानसिक चिकित्सा का सबसे बड़ा सूत्र है - पुरानी ग्रन्थियों को खोलना । जब मन में ग्रन्थिपात हो जाता है तब नाना प्रकार की बीमारियां सताने लग जाती हैं। उन ग्रन्थियों को खोलने की सबसे महत्त्वपूर्ण विधि है - प्रयश्चित्त । प्राचीन भाषा में प्रायश्चित्त और आज की भाषा में मनोविश्लेषण, आत्म-विश्लेषण । जब रोगी आत्म-विश्लेषण करता है तब मनः चिकित्सक उसकी सारी ग्रन्थियों को जान लेता है और उपायों से
लेश्या : एक विधि है रसायन-परिवर्तन की २११
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