Book Title: Abhamandal
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 224
________________ जो पदार्थ से मिलता है। हम उस सुख से परिचित नहीं हैं जिस सुख में किसी भी पदार्थ का योग नहीं होता। हम अन्तर्ज्ञान से परिचित नहीं हैं, हम अन्तर्चेतना से परिचित नहीं हैं। हम आन्तरिक सुखानुभूति और आध्यात्मिक सुखानुभूति से सर्वथा अपरिचित हैं। जब तक चैतन्य केन्द्रों के ध्यान के द्वारा हमारी लेश्याओं में परिवर्तन होता है, हमारे भाव-संस्थान में परिवर्तन होता है, उसके वर्ण, गंध, रस और स्पर्श नहीं बदलते, तब तक अन्तर्ज्ञान नहीं हो सकता। आन्तरिक आनन्द उपलब्ध नहीं हो सकता। प्रत्येक लेश्या का अपना रंग होता है। प्रत्येक लेश्या का अपना गंध, रस और स्पर्श होता है। हमें उनका पता नहीं चलता, क्योंकि हम अपने भावों के साथ इतने जुड़े हुए हैं कि हमें वास्तविकता का पता ही नहीं चलता। गांव में एक संन्यासी आया। वह तेजस्वी और शक्तिशाली था। राजा ने उसकी प्रशंसा सुनी। वह दर्शन करने आया। उसे अपूर्व शान्ति की अनुभूति हुई। उसने कहा-'महाराज! कुछ दिन के लिए आप मेरे महल में चलें।' संन्यासी ने कहा-'महलों में मुझे सोने की गंध आती है। मैं वहां नहीं रह पाऊंगा।' राजा बोला-'कैसी बात करते हैं? सोने की गंध कहां है? लोग सोने का नाम लेते ही उस ओर दौड़ पड़ते हैं। आप उससे दूर जाना चाहते हैं। मैं वहां रहता हूं मुझे आज तक गंध नहीं आई। संन्यासी ने कहा-'चलो, मेरे साथ।' संन्यासी राजा को लेकर चमारों की बस्ती में गया। राजा को चमड़े की दुर्गन्ध सताने लगी। उसने अपनी नाक कपड़े से ढंग लिया। संन्यासी एक चमार के घर पर जा रुका। राजा ने कहा-'महाराज! कहां ले आए आप? बड़ी दुर्गन्ध आ रही है। मेरा जी घुट रहा है। जल्दी चलें।' संन्यासी बोला-'कैसी दुर्गन्ध! आप भी बड़ी विचित्र बात कर रहे हैं। आप इस घर के मालिक को पूछे।' घर का स्वामी आया। संन्यासी ने पूछा 'अरे, तुम्हें यहां दुर्गन्ध नहीं आती?' घर के स्वामी ने कहा-'नहीं, दुर्गन्ध है कहां? मुझे यहां रहते पचास वर्ष हो गए। कभी दुर्गन्ध की अनुभूति नहीं हुई। संन्यासी राजा को लेकर महल में आ गया। वह राजा से बोला-'देखा, महाराज! आपको वहां चमड़े की दुर्गन्ध आ रही थी। वहां रहने वालों को उसका २१४ आभामंडल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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