Book Title: Abhamandal
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 232
________________ ध्यान की प्रक्रिया मूर्छा को तोड़ने की प्रक्रिया है। जो उपाय चेतना को मूर्छित करते हैं वे ध्यान के सही उपाय नहीं हैं। ध्यान के सही उपाय वे ही हैं जो मूर्छा को तोड़ते हैं। जितने पदार्थ हैं, उतने उपक्रम हैं। व्यक्ति की चेतना को मूर्च्छित करने वाले वे सब हमारे कर्म-तन्त्र को प्रभावित करते हैं। वे कर्म-तन्त्र को निष्क्रिय बना देते हैं, किन्तु वे मूर्छा को नहीं तोड़ सकते। केवल कर्म-तन्त्र को प्रभावित या मूर्च्छित करने से मूर्छा का नाश नहीं होता, मूर्छा का विलय नहीं होता, मूर्छा नहीं टूटती। जब साधक कर्म-तन्त्र को पारकर भाव-तन्त्र का स्पर्श करता है तब मूर्छा टूटती है। भाव-तन्त्र का स्पर्श केवल चेतना के द्वारा ही किया जा सकता है। वहां तक कोई पदार्थ नहीं पहुंच सकता, कोई उपकरण नहीं पहुंच सकता। केवल चेतना के द्वारा हम उसका स्पर्श कर पाते हैं। हमारा प्रवृत्ति-तन्त्र निष्क्रिय हो जाने पर भी कषाय-तन्त्र निष्क्रिय नहीं होता, सतत सक्रिय रहता है। स्थावर जीवों में मन विकसित नहीं होता, वाणी विकसित नहीं होती और शरीर-तन्त्र भी सुदृढ़ नहीं होता, किन्तु उनमें भी कषाय-तन्त्र, लेश्या-तन्त्र और भाव-तन्त्र निरन्तर राक्रिय रहता है और उनके प्रतिक्षण कर्म-बंध होता रहता है। उनकी मूर्छा घनीभूत होती है। उनकी मूर्छा स्त्यानर्धि मूर्छा होती है। यह मूर्छा की चरम कोटि है। कर्म-तन्त्र इतना सक्रिय नहीं होता, फिर भी मूर्छा बहुत घनी होती है। हम केवल कर्म-तन्त्र पर ही न रुकें, आगे बढ़ें, जड़ को देखें और कषाय-तन्त्र तक पहुंचे। कषाय-तन्त्र की चिकित्सा लेश्या-तन्त्र को समझकर ही की जा सकती है। महावीर ने दो शब्द दिए-द्रव्य और भाव। द्रव्य-अहिंसा और भाव-अहिंसा। शरीर से कोई हिंसा होती है, वाणी से कोई हिंसा होती है और मन से कोई हिंसा होती है। हिंसा इतनी ही नहीं है। उसकी सीमा और आगे है। शरीर से कोई अहिंसा होती है, वाणी से कोई अहिंसा होती है और मन से कोई अहिंसा होती है। अहिंसा इतनी ही नहीं है। उसकी सीमा और आगे है। काल शौकरिक महावीर के समय का प्रसिद्ध कसाई था। वह प्रतिदिन पांच सौ भैंसे मारता था। उसको अहिंसक बनाने के लिए महाराज श्रेणिक २२२ आभामंडल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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