Book Title: Abhamandal
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 236
________________ एक कुशल वक्ता बोलने के लिए मंच पर आकर खड़ा हुआ। वह बोला- 'मैं जो कहना चाहता हूं, यदि आप उसे जानते हैं तो मुझे कुछ कहने की जरूरत ही नहीं है। यदि आप उसे नहीं जानते हैं तो मुझे कहने की जरूरत ही क्या है?' इतना कहकर वह बैठ गया। लगता है, मैं भी रुक जाऊं। बैठ जाऊं, यदि आप उस बात को समझते हैं तो फिर मुझे समझाने की जरूरत ही नहीं है और नहीं समझते हैं तो मुझे समझाने की आवश्यकता ही क्या है? किन्तु व्यवहार का प्रश्न सामने आता है। व्यवहार यही कहेगा कि समझ में नहीं आता है तो भी समझाया जाए। व्यवहार व्यवहार की भूमिका पर चलता है। वह निश्चय की भूमिका का स्पर्श नहीं करता। निश्चय की भूमिका अलग है और व्यवहार की भूमिका अलग है। हम सब व्यवहार से जुड़े हुए जी रहे हैं। जब तक शरीर है तब तक व्यवहार को तोड़ा नहीं जा सकता। इस शरीर के रहते कोई भी व्यक्ति सर्वथा व्यवहारातीत नहीं हो सकता। जो शरीर के रहते व्यवहारातीत बनने की बात सोचता है, वह भ्रम में है। वह स्वयं को भी धोखा देता है और दूसरे को भी धोखे में डालता है। शरीर के रहते व्यवहार को नहीं छोड़ा जा सकता। शरीर छूटेगा, व्यवहार अपने आप छूट जाएगा। जब तक शरीर है शरीर को चलाना है। जीवन की यात्रा को चलाना है तो साथ-साथ व्यवहार को भी चलाना होगा। मैं मानता हूं कि भावशुद्धि की साधना करने वाले व्यक्ति का व्यवहार टूटता नहीं, किन्तु वह वास्तविक बन जाता है। व्यवहार विघटित नहीं होता। व्यवहार सफल होता है। इसको समझने के लिए गहराई में जाना होगा। एक है घटना और एक है कल्पना। मनुष्य जीवन में कभी सुख का अनुभव करता है और कभी दुःख का अनुभव करता है। कभी प्रियता का अनुभव करता है और कभी अप्रियता का अनुभव करता है। वह कभी अनुकूलता का अनुभव करता है और कभी प्रतिकूलता का अनुभव करता है। हमारे सामने घटना इतनी बड़ी नहीं होती, जितनी बड़ी होती है संवेदना और कल्पना। कुछ आदमी बहुत संवेदनशील होते हैं, कल्पनाशील होते हैं। वे छोटी-सी घटना को भी बड़ी बना देते हैं; राई का पर्वत कर देते हैं। जिस व्यक्ति ने संवेदन पर नियन्त्रण पा २२६ आभामंडल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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