Book Title: Abhamandal
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 244
________________ । भोग है । भोग के द्वारा रेचन कराने की पद्धति मूर्च्छा की पद्धति है बिना भोग कराए, मंदवीर्य बनाकर उन वृत्तियों की निर्जरा कर देना, रेचन कर देना जागरण की प्रक्रिया है । प्रश्न २. भाव और भावना में क्या अन्तर है? उत्तर - भाव एक निर्हित संस्थान है । जब भाव प्रकट होता है तब वह भावना बन जाता है । भाव की अभिव्यक्ति ही भावना है। प्रश्न ३. कुछेक वनस्पतियों के जीवों की मूर्च्छा चरम सीमा तक पहुंची हुई होती है । वे जीव बार-बार उसी वनस्पति में जन्म लेते हैं और मरते हैं। क्या उनके भी उद्धार का कोई मार्ग है? 1 उत्तर - जब तक गाढ़ मूर्च्छा बची रहती है, तब तक उद्धार का कोई मार्ग नहीं है । यह स्त्यानर्द्धि मूर्च्छा जब टूटती है तब मार्ग मिलता है । इसके टूटने के दो कारण हैं - काललब्धि और साधना । एक है स्वाभाविक और दूसरा है प्रयत्नजन्य । इस गहरी नींद के टूटने में काल ही कारण बनता है । काललब्धि से ऐसा परिपाक होता है कि भीतर ही भीतर मूर्च्छा टूटने लगती है । जब मूर्च्छा टूटती है तब उन जीवों का उत्क्रमण होता है । वे दूसरी योनियों में जन्म लेने का विकास कर लेते हैं । प्रश्न ४. घटना के साथ कल्पना को नहीं जोड़ना - इसका तात्पर्य क्या है ? इससे क्या लाभ होता है? उत्तर- घटना के साथ कल्पना को न जोड़ने का अर्थ है कि सुख-दुःख का संवेदन नहीं करना, किन्तु सचाई की सचाई तो जानना ही होगा । वह व्यक्ति घटना को घटना जानेगा, उसके लिए उपाय भी करेगा, पर सुख-दुःख का अनुभव नहीं करेगा। पड़ोसी के घर चोरी हो गई। यह एक घटना है। इसके साथ मन इतना नहीं जुड़ता है तो दुःख का संवेदन नहीं होता । मन थोड़ा जुड़ता है तो दुःख होता है । जब अपने घर चोरी होती है तब उसके साथ मन तीव्र रूप से जुड़ता है । और संवेदन भी तेज हो जाता है । यदि कहीं और किसी के चोरी होती है तो मन जुड़ता ही नहीं और संवेदन कुछ भी नहीं होता । कभी-कभी दूर की घटना के साथ हमारी सहानुभूति होती है। सहानुभूति का अर्थ है - सापेक्षता । यही 1 २३४ आभामंडल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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