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को तोड़ देना। पदार्थ का उपयोग होगा, किन्तु चेतना पदार्थ से प्रतिबद्ध नहीं होगी। उपयोग करना और प्रतिबद्ध होना-दोनों अलग-अलग बातें हैं। रोटी खाना पदार्थ की उपयोगिता है। रोटी से बंध जाना यह उसकी प्रतिबद्धता है। जिसकी चेतना जाग जाती है वह भी रोटी खाता है। ध्यान करने वाला साधक रोटी खाता है, पानी पीता है, पैसा रखता है। ये जीवन के आवश्यक उपकरण हैं। सबके लिए जरूरी हैं। ध्यान करने का यह अर्थ नहीं है कि पदार्थ छूट जाए। ध्यान से पदार्थ नहीं छूटता। जब तक जीवन है तब तक पदार्थ को नहीं छोड़ा जा सकता। आध्यात्मिक होने का यह अर्थ नहीं है कि भौतिक छूट जाए। भौतिक नहीं छूटती। पदार्थ का उपयोग नहीं छूटता, केवल पदार्थ की प्रतिबद्धता छूट जाती है। वह साधक पदार्थ से बंधा नहीं रहता, पदार्थ के चंगुल में फंसा नहीं रहता। चेतना के जागरण का यह मुख्य परिणाम है। उसमें पदार्थ की उपयोगिता शेष रहती है, प्रतिबद्धता समाप्त हो जाती है। समस्या का मूल प्रतिबद्धता है, उपयोगिता नहीं, ध्यान से चेतना को जागृत करने पर व्यवहार सीधा और सरल बन जाता है, व्यवहार की उलझनें समाप्त हो जाती हैं, व्यवहार निश्चल हो जाता है। कोई भी उस व्यक्ति को खुली पोथी की भांति पढ़ सकता है।
यह सचाई है कि सफल जीवन जीने के लिए; मूदु और निश्चल व्यवहार के लिए अध्यात्म चेतना का जागरण जरूरी है। आन्तरिक विकास और शक्ति के जागरण के लिए, ज्ञान के अवरोध को समाप्त करने के लिए, अन्तराय की चट्टान को तोड़ने के लिए और मूर्छा की दुर्भेद्य दीवार को गिराने के लिए चेतना का जागरण आवश्यक है। जीवन-व्यवहार को सुखमय, कलहमुक्त और मृदु बनाने के लिए भी अध्यात्म की चेतना को जगाना जरूरी है।
जो व्यक्ति ध्यान की साधना के लिए उपस्थित हैं, वे सब भ्रान्तियों को पार कर, आने वाले तार्किक प्रश्नों में न उलझें। वे गहरे में उतरकर सत्य का साक्षात्कार करें, अनुभव को प्रधानता दें और सचाई का स्वयं अनुभव करें। उन्हें दूसरों पर निर्भर नहीं होना है। उनका सूत्र है-'अप्पणा सच्चमेसेज्जा'-स्वयं सत्य को खोजो, केवल दूसरे की मानकर मत चलो। २३२ आभामंडल
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