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सहानुभूति का आधार है। कभी ऐसा भी होता है कि जिसके घर चोरी होती है उसे उतना दुःख नहीं होता जितना दुःख दूसरे को होता है। इसमें मन के संवेदन की सबलता और निर्बलता ही कारण बनता है। एक बहिन का पति चल बसा। बहिन का मन मजबूत है। वह इस अनिवार्य घटना को सहज रूप में स्वीकार करती है और मन के संवेदन को उभरने नहीं देती। दूसरे लोग उस बहिन के पास आते हैं। रोते-रोते वे अपनी सहानुभूति दिखाना चाहते हैं। सहानुभूति होना एक बात है और सहानुभूति का प्रदर्शन होना दूसरी बात है। घटना का घटित होना सर्वथा भिन्न बात है। भारत में भिखारियों के प्रति सहानुभूति के नाम पर भिखारियों की भी दुर्दशा और देश की भी दुर्दशा हुई। जहां भिखारियों के लिए व्यवस्था कर दी गई, उनके लिए काम की व्यवस्था और उनके जीवन की व्यवस्था कर दी गई, वहां सब कुछ ठीक हो गया। भिखारी समाप्त हो गए। सहानुभूति वास्तव में यह है कि व्यवस्था का परिष्कार हो जाए। बहुत बार व्यवस्था का छलावा होता है, वास्तविकता की अनुभूति नहीं करते। ध्यान के द्वारा एक ऐसी चेतना का जागरण होगा कि जहां जो जैसे करना चाहिए, वह वैसे होगा ही। साथ-साथ झूठी बातें समाप्त हो जाएंगी।
प्रश्न ५. व्यवस्था-तंत्र के कुछ नियम होते हैं। साधक साधना करता है, वह व्यवस्था-तंत्र के नियमों को निभाए या अपनी साधना करे?
उत्तर-साधक साधना करेगा। वह व्यवस्था का जितना उपयोग करेगा, उतने नियम निभाएगा। यदि वह उस भूमिका पर पहुंच जाए कि उसे व्यवस्था का उपयोग करने की जरूरत नहीं है तो वह नियमों को सर्वथा अस्वीकार कर देगा। वह अकेला जंगल में जाकर साधना करे और जो कुछ सहज उपलब्ध हो जाए वह खाये-पीये तो व्यवस्था-तन्त्र के नियमों की कोई जरूरत ही नहीं होगी। वह कल्पनातीत स्थिति में चला जाता है किन्तु यदि साधक व्यवस्था-तंत्र का उपयोग करता है तो उसे उसके नियमों को भी ध्यान में रखना होगा। उसे नियम निभाने पड़ेंगे। दोनों सापेक्ष बातें हैं। आज ही ध्यान प्रारंभ किया और आज ही व्यवस्था-तन्त्र को नकार दिया-यह असंगत बात है। अमुक अवस्था
लेश्या : एक प्रेरणा है जागरण की २३५
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