Book Title: Abhamandal
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 243
________________ जब स्वयं सत्य को खोजने की बात अन्तश्चेतना तक बैठ जाएगी; जब हम ध्यान के द्वारा अनुभव के स्तर तक पहुंच जाएंगे, उस दिन हमारी आन्तरिक मूर्छा और व्यवहार की समसयाएं समाप्त हो जाएंगी और हम सफल और आनन्दमय जीवन जीने में सक्षम हो सकेंगे। प्रश्न १. ध्यान की गहराई में जाने वाले कुछ साधक हंसने लग जाते हैं, रोने लग जाते हैं, उन्हें वस्त्रों का भान भी नहीं रहता, क्या यह आध्यात्मिकता है? उत्तर-जब साधना में मूर्छा का साथ होता है, तब ऐसी घटनाएं घटती हैं, किन्तु जागरूकता की स्थिति में ऐसा नहीं हो सकता। यह सच है कि मनुष्य में हंसने का भाव भी है, रोने का भाव भी है, कपड़े पहनने की आदत भी है। हंसना, रोना सूक्ष्म भाव हैं और कपड़े पहनना स्थूल भाव है। मैं मानता हूं ये सब सम्मोहन के प्रयोग हैं। सम्मोहन के प्रयोग से हंसाया जा सकता है, रुलाया जा सकता है। क्योंकि ये वृत्तियां तो मनुष्य में हैं ही। प्रयोग किया और ये प्रकट हो जाती हैं। जहां चेतना को जगाने का प्रश्न है वहां इन वृत्तियों का इस प्रकार रेचन करने की जरूरत नहीं होती। यह ठीक है कि इनका रेचन करना होगा। हंसने का, रोने का, भय का-इन सबका रेचन करना है। किन्तु यह जरूरी नहीं है कि हंसाकर ही हंसने का रेचन कराया जाए, रुलाकर ही रोने का रेचन कराया जाए या भोग या अब्रह्मचर्य में ही ले जाकर ही कामवासना का रेचन कराया जाए। रेचन की बहुत-सी प्रक्रियाएं हैं। बिना हंसे हंसने का रेचन हो जाएगा। बिना रोए रोने का रेचन हो जाएगा। दो पद्धतियां हैं। एक है मूर्छा की पद्धति। दूसरी है जागरण की पद्धति। यदि हम जागरण के उपायों को काम में लाते हैं तो वहां हंसने की, रोने की जरूरत नहीं होती। हजारों-हजारों साधकों ने सत्य की साधना की, सत्य का साक्षात्कार किया, वे जागरण की प्रक्रिया से चले ऐसा उल्लेख नहीं मिलता कि वे बहुत हंसे या बहुत रोए। रोना-हंसना मूर्छा की प्रक्रिया है। मूर्छा कि प्रक्रिया में रेचन कराया जाता है उसके भोग के द्वारा। रोना भोग है और हंसना भी भोग है। जो भीतर है उसका लेश्या : एक प्रेरणा है जागरण की २३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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