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लिया, जिस व्यक्ति ने अपनी कल्पनाओं पर नियन्त्रण पा लिया उसके मन में ऐसी शक्ति का जागरण होता है कि वह पर्वत को भी राई बना डालता है। पर्वत जितनी बड़ी घटना को राई जैसी छोटी बना सकता है। घटना कभी बड़ी नहीं होती। बड़ी होती है हमारी संवेदना और बड़ी होती है हमारी अनुभूति की प्रक्रिया। इसे मैं एक घटना से स्पष्ट करूं ।
घटना है इंग्लैण्ड की। एक बार वहां सेना के लिए अनिवार्य भर्ती की बात सोची जा रही थी। घोषणा होने ही वाली थी कि सभी नागरिकों को अनिवार्यतः सेना में भर्ती होना होगा। एक व्यक्ति चिन्तित हो उठा। वह एक बड़े व्यक्ति के पास जाकर बोला- 'क्या आपको भय नहीं लगता? अनिवार्य भर्ती की घोषणा होने वाली है। मैं तो बहुत घबरा गया हूं। मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा है। क्या आपको भय नहीं लगता?' उसने कहा-'भय किस बात का? अभी तो घोषणा ही नहीं हुई है। घोषणा हो भी गई तो कौन जानता है कि वे मुझे सेना में भर्ती कर लेंगे? यदि वे मुझे भर्ती कर भी लेंगे तो क्या पता कि वे मुझे मोर्चे पर भेज ही देंगे। मान लो कि वे मुझे मोर्चे पर भेज ही देंगे तो भी क्या पता कि मुझे गोली लगेगी ही और मैं वहीं पर मर जाऊंगा। यदि गोली लगेगी और मैं मर जाऊंगा तो फिर डरने की जरूरत ही क्या है। मरने के बाद डरेगा कौन? अतः अभी से मैं कल्पना के भय से भयभीत होना नहीं चाहता।।
सचमुच घटना का दुःख नहीं होता। घटना घटित हो जाती है। घटना हमें नहीं सताती। सताती है घटना के दुःख की कल्पना। हम काल्पनिक घटनाओं के द्वारा अपने लिए दुःखों के जाल बिछा लेते हैं और उनमें निरन्तर फंसे रहते हैं। घटना नहीं सताती, सताता है घटना का संवेदन। सताता है कल्पना का दुःख।
ध्यान करने वाला व्यक्ति घटना से अपने संवेदन को तोड़ देता है। वह घटना से जुड़ा नहीं रहता। आप यह न माने कि ध्यान करने वाले में इतनी शक्ति आ जाती है कि वह घटनाओं को रोक देता है। आज तक न ऐसा हुआ है और न कभी होगा। घटना को रोका नहीं जा सकता। घटना से उत्पन्न होने वाले संवेदन को रोका जा सकता
लेश्या : एक प्रेरणा है जागरण की २२७
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