Book Title: Abhamandal
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

Previous | Next

Page 225
________________ अनुभव ही नहीं हो रहा था। इसी प्रकार यहां आपके महलों में मुझे सोने की गंध आती है, आपको उसका अनुभव ही नहीं होता। जो जिसमें रचपच जाता है, वह वैसा ही हो जाता है। ___बुरे भावों की गंध में, बुरे भावों के कड़वे रस में, बुरे भावों के स्पर्श में आदमी इतना घुल जाता है, एकात्म हो जाता है कि उसे यह अनुभव ही नहीं होता कि भीतर के रसायनों में कितनी दुर्गन्ध है, कितने खराब रस और स्पर्श हैं। कृष्ण-लेश्या का वर्ण काला होता है। कोरा वर्ण ही काला नहीं होता, उसमें दुर्गन्ध होती है। कृष्ण-लेश्या के परमाणुओं में दुर्गन्ध होती है। दुर्गन्ध भी मरे हुए कुत्ते की सड़ांध से अनन्तगुना अधिक । वह दुर्गन्ध हम अपने भीतर लिये बैठे हैं। हम बाहर की दुर्गन्ध को मिटाने के लिए कभी-कभी इत्र या सुगन्ध का प्रयोग करते हैं। उससे बाहर की दुर्गन्ध इतनी नहीं सताती। परन्तु हम यह अनुभव तो करें कि भीतर के परमाणुओं में कितनी दुर्गन्ध है। कृष्ण-लेश्या का रस कडुवे तुंबे से भी अनन्तगुना कड़वा होता है। उसका स्पर्श करवत से भी अनन्तगुना ज्यादा कर्कश होता है। इस प्रकार के कृष्ण-लेश्या के परमाणुओं को हम भीतर आभामण्डल के साथ जोड़े हुए बैठे हैं। हम खड़े होते हैं तो वह आभामण्डल खड़ा हो जाता है। हम सोते हैं तो वह आभामण्डल सो जाता है। हम चलते हैं तो वह आभामण्डल चलने लग जाता है। वह हमारा साथ कभी नहीं छोड़ता। इसी प्रकार नील-लेश्या का आभामण्डल भी हमारा साथ नहीं छोड़ता। नील-लेश्या के आभामण्डल में नील-लेश्या के परमाणुओं का रस त्रिकुट और गजपीपल के रस से भी अनन्तगुना तीखा होता है। कापोत-लेश्या के आभामण्डल में कापोत-लेश्या के परमाणुओं का रस कच्चे आम और कच्चे कपित्थ के रस से भी अनन्तगुना कषैला होता है। हम अपने भीतर ऐसे-ऐसे रसायनों को संजोए बैठे हैं, फिर भी बाहर से साफ रहने का प्रयत्न कर रहे हैं। भीतर की निर्मलता अधिक मूल्यवान् होती है। लेश्या : एक विधि है रसायन-परिवर्तन की २१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258