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पकड़ लिया। उसका प्रतिफलन हुआ-मुक्त-वासना। मुक्त-यौनाचार को खुलकर खेलने का अवसर मिल गया। ___ मार्क्स ने कल्पना की थी कि साम्यवादी शासन में कोई परिवार नहीं होगा। कोई पत्नी नहीं होगी, कोई पति नहीं होगा। कोई बाप नहीं होगा। कोई बेटा नहीं होगा। उसकी कल्पना साकार नहीं हुई। यदि साकार होती तो आज अध्यात्म के किसी आचार्य को मुक्त-यौनाचार जैसे प्रयोग नहीं करने पड़ते। यह तो मार्क्स पहले ही कर गए। कल्पना थी। वह सफल नहीं हुई, यह अलग बात है। आज जो साम्यवादी देश हैं, जहां मार्क्स के सिद्धान्तों का क्रियान्वयन हो रहा है, वहां भी यह बात नहीं बनी। आज वहां भी परिवार हैं। पति-पत्नी हैं, बाप-बेटा हैं। सब कुछ है।
आज के युग में मुक्त-यौनाचार के प्रति आकर्षण है और वह ऐसे स्थानों में जाना चाहता है जहां मुक्त-यौनाचार किसी भी नाम से चलता हो-चाहे वह ध्यान की गहराई में जाने के नाम से चले या कण्ठा-निवारण के लिए चले। किन्तु इसका परिणाम कितना भयंकर होता है, यह सबको ज्ञात है। हम परिणामों को विस्मृत न करें।
प्रवृत्ति का क्षण हमारे लिए मूल्यांकन का क्षण नहीं होता। हम उसे कसौटी नहीं मान सकते। कसौटी बन सकता है परिणाम का क्षण, कसौटी बन सकता है निष्पत्ति और फल का क्षण।।
यदि मुक्त-यौनाचार के प्रयोगों के परिणामों पर हम विचार करते हैं तो यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इतने खराब परिणाम आएंगे कि सारा सामाजिक ढांचा ही विकृत हो जाएगा, लड़खड़ा जाएगा।
गांधी ने इस दिशा में प्रयोग किए। प्रयोग हो सकते हैं। प्रयोगों को मैं अस्वीकार नहीं करता। जैन परम्परा में विजय सेठ और विजया सेठानी के वृत्तान्त की चर्चा है। वे दोनों आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर चुके थे। दोनों एक शय्या पर सोते। किन्तु थे पूरे ब्रह्मचारी। यह प्रयोग था उनका। किन्तु ऐसे विरल व्यक्तियों के प्रयोगों को हम सामाजिक स्तर पर लाना चाहें तो यह हमारी वज्र भूल होगी। सब मुक्त हो जाएंगे। किसी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं रहेगा। परिवार नाम की कोई चर्चा नहीं रहेगी। पतिव्रत और पत्नीव्रत जैसे शब्द आकाश-कुसुम बन जाएंगे। १६८ आभामंडल
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