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काव्य-शास्त्रों में उल्लिलिखत है कि स्त्री दूसरों को आकृष्ट करने के लिए अपने कटाक्ष के बाणों का प्रक्षेप करती है । यह कटाक्ष क्या है ? बहुत बार सोचा, किन्तु इसका यथार्थ समाधान नहीं मिला। किन्तु जब ध्यान-साधना में उतरा तो यह स्पष्ट हो गया । हमारे मस्तिष्क में बहुत विद्युत् पैदा होती है। आंख मस्तिष्क का दरवाजा है । मस्तिष्क को देखने के दो उपाय हैं । य तो मस्तिष्क को शल्यक्रिया द्वारा देखा जा सकता है या आंख के मार्ग से उसको पूरा देखा जा सकता है। मस्तिष्क की विद्युत् आंख से बाहर निकलती है । शरीर की विद्युत् के
हिगर्मन के तीन मुख्य स्थान हैं- आंख, अंगुलियां और वाणी । ये तीन मुख्य द्वार हैं। आंख के माध्यम से जो विद्युत् बाहर जाती है, वह जब दूसरे व्यक्ति की विद्युत् से टकराती है तब व्यक्ति सम्मोहित जैसा हो जाता है । सारा काम विद्युत् का है । इसलिए जब तक हम विद्युत् की गरिमा या कार्यप्रणाली को नहीं समझ लेंगे तब तक काम या राग का दिशान्तरण या मार्गान्तरण घटित नहीं होगा । जो व्यक्ति अपनी विद्युत् को, ऊर्जा को मोड़ देता है, जो ज्ञान के प्रति, धर्म के प्रति, आत्मा के प्रति ऊर्जा को मोड़ देता है, उसकी काम-ऊर्जा शिथिल हो जाती है । उसकी रागानुभूति कम हो जाती है। जिस राग - प्रणालिका से बहता हुआ जल काम को, सेक्स को सिंचन करता था, वह मार्ग धीरे-धीरे बंद होता जाता है और नया मार्ग खुल जाता है। वह जल दूसरे मार्ग से बहने लगता है ।
अध्यात्म शास्त्र में राग के दो भेद प्राप्त होते हैं-प्रशस्त राग और अप्रशस्त राग । जो राग धर्म के प्रति होता है, आत्मा के प्रति होता है, धर्ममूर्ति पुरुष के प्रति होता है, वह है प्रशस्त राग । जो राग विषयों के प्रति, पदार्थों के प्रति होता है वह है अप्रशस्त राग । 'धम्माणुरागरत्ते' - जो व्यक्ति धर्म के अनुराग से रक्त होता है वह धार्मिक होता है। यहां भी अनुराग है । राग नहीं मिटा । केवल इतना सा अन्तर आया कि जो राग विषयों या पदार्थों के प्रति दौड़ता था, वह राग धर्म के प्रति हो गया। वह राग सत्य की खोज के प्रति हो गया। राग के बिना काम नहीं चलेगा। जब तक व्यक्ति वीतराग अवस्था तक नहीं पहुंच जाता,
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आभामण्डल और शक्ति - जागरण ( १ )
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