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भीड़ में आ जाता है। दूसरी ओर जो व्यक्ति तेजो-लेश्या, पद्म-लेश्या
और शुक्ल-लेश्या से आभामण्डल का निर्माण कर लेता है तो वह हजारों-हजारों की भीड़ में रहता हुआ भी सचमुच अकेला बन जाता है। जब आभामण्डल या भावमण्डल शक्तिशाली बन जाता है तब बाहर का सारा प्रवेश निषिद्ध हो जाता है। शक्ति-जागरण के लिए यह जरूरी है कि व्यक्ति प्रतिपल जागरूक रहे, अप्रमत्त रहे। मन को जागरूक करना बहुत जरूरी है। जागरूकता के बिना ऐसा हो नहीं सकता। हमारा आभामण्डल, हमारी-लेश्याएं, हमारा भाव-तन्त्र वैसा होगा जैसा भीतर से स्पन्दन आएगा। जब मोह के स्पन्दन आते हैं तब लेश्या कृष्ण बन जाती है; नील और कापोत बन जाती है। आभामण्डल भी वैसा विकृत, अन्धकारमय और धब्बों वाला होगा। जब मोह की शृंखला टूटती है, तब धर्म-लेश्याओं के स्पन्दन जागते हैं, तब आभामण्डल भी पवित्र बनेगा। सारे रंग बदल जाएंगे। आभामण्डल का रंग लाल, पीला या सफेद हो जाएगा। शक्ति का संचार प्रारंभ होगा। शक्ति में बाधा डालने वाले स्पन्दन समाप्त हो जाएंगे।
मैंने प्रक्रिया की बात बताते हुए कहा था, हम संकल्प-शक्ति का प्रयोग करें, एकाग्रता की शक्ति का प्रयोग करें और इच्छा-शक्ति का प्रयोग करें। यह पूरी प्रक्रिया नहीं है। प्रक्रिया शेष रह जाती है। पूरी प्रक्रिया को जाने बिना व्यक्तित्व में परिवर्तन नहीं आ सकता। तैजस के परमाणुओं का संचय और संग्रहण नहीं कर सकते। ऊर्जा की ऊर्ध्व यात्रा की प्रक्रिया बहुत कठिन है; जन सामान्य के समझ से परे की बात है। उसका अधोगामी प्रवाह व्यक्ति को काम की ओर प्रेरित करता है। काम का अनियंत्रित भोग व्यक्ति को पतित और असामाजिक बनाता है। अतः उसके समक्ष काम के दमन के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं रहता। इससे बचने का एकमात्र उपाय है-शक्ति का संवर्धन। ऊर्जा का ऊर्ध्व यात्रा करना बहुत अभ्यास साध्य है। हम इस बात को न भूलें कि जिस दिशा में हमारी शक्ति का प्रवाह ज्यादा होता है वह दिशा सक्रिय बन जाती है और शेष सारी दिशाएं निष्क्रिय रह जाती हैं। इन्द्रियों की दिशा में हमारी शक्ति का बहुत व्यय होता है। काम की दिशा १६० आभामंडल
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