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उसमें भी सुख है । चलते-चलते यह विचार आता है कि एक बिन्दु ऐसा भी होना चाहिए जहां चरम सुख की अनुभूति भी होती है। जहां छोटे-छोटे सुख समाप्त हो जाते हैं। यह प्रेरणा बने, कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु मनुष्य ने सच्ची समाधि की खोज इस आधार पर की जो कि कामजन्य सुख है, वह निराशा पैदा करती है । वह शक्ति को क्षीण करता है। विषाद पैदा करता है । ऐसी स्थिति में ऐसा भी सुख होना चाहिए जो आनन्द उपलब्ध कराए, शक्ति क्षीण न करे और विषाद पैदा न करे । इस दिशा में मनुष्य ने खोज प्रारम्भ की और वह एक दिन सही समाधि तक पहुंच गया ।
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महावीर ने कहा - 'खणमेत्तसोक्खा, बहुकालदुःखा' - इन्द्रियों के जितने विषय हैं, उनसे होने वाला सुख क्षणस्थायी होता है। उसका अंत दुःख में होता है । ये प्रवृत्तिकाल में सुख देते हैं और परिणाम काल में दुःख देते हैं । समाधि की खोज प्रवृत्ति के आधार पर नहीं हुई, परिणाम के आधार पर हुई है । मतभेद का बिन्दु है प्रवृत्ति और परिणाम । जब हम केवल प्रवृत्ति को मानकर सुख की बात को आगे बढ़ाते हैं तब हम शक्ति के व्यय के रास्तों को खोल देते हैं । सारी शक्ति खर्च हो जाती है, फिर भी प्राप्त कुछ भी नहीं होता । यह विकास हुआ है परिणाम के आधार पर ! जब मनुष्य ने सोचा कि सारे दरवाजों को खोलने का परिणाम यह होता है कि सारा पानी बह जाता है, शक्ति सारी क्षीण हो जाती है तब ऐसा कोई उपाय ढूंढ़े जिससे शक्ति भी क्षीण न हो और आनन्द भी मिल जाए । प्रवृत्ति का क्षण भी अच्छा हो और परिणाम भी अच्छा हो । प्रवृत्ति का क्षण भी सुखदायी और परिणाम का क्षण भी सुखदायी । इस चिन्तन से प्रेरित होकर मनुष्य ने समाधि की खोज की । शक्ति के व्यय को रोकने का उपक्रम सोचा ।
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ऑकल्ट साइंस के पुरस्कर्ताओं ने दो प्रकार की ओराओं का प्रतिपादन किया है
१. इमोसनल ओरा ( भावनात्मक आभामण्डल) ।
२. मेण्टल ओरा ( मानसिक आभामण्डल) ।
लेश्या के सिद्धान्त में भी ये दो शब्द मिलते हैं । लेश्या दो प्रकार
१६४ आभामंडल
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