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है। आचार्य रजनीश ने धर्मगुरुओं पर, धर्म पर बहुत बड़ा आक्षेप किया है कि धर्मगुरु दमन सिखाते हैं, धर्म दमन सिखाता है। यह झूठा आक्षेप है। इसमें सचाई नहीं है। धर्मशास्त्र कभी दमन नहीं सिखाते। धर्मशास्त्र रेचन की बात सिखाते हैं। तपस्या की पूरी प्रक्रिया निर्जरा की प्रक्रिया है। धर्मशास्त्र निर्जरा की प्रक्रिया सिखाते हैं। धर्मगुरु निर्जरा का रास्ता दिखाते हैं। निर्जरा की प्रक्रिया दमन की प्रक्रिया नहीं है, रेचन की प्रक्रिया है। जो कर्म परमाणु आत्मा के साथ जुड़े हुए हैं, जो हमारी वृत्तियों को जगाते हैं, उन सारे परमाणुओं का रेचन कर देना, उन्हें समाप्त कर देना, उनका शोधन कर देना-यह है निर्जरा की प्रक्रिया। रेचन और संवर-दोनों साथ-साथ चलें। पुराने परमाणुओं को झाड़ देना और नये परमाणु भीतर न जाने पाएं, ऐसी व्यवस्था करना। यह दोहरी व्यवस्था धर्म के आचार्यों ने की है। इसलिए मैं मानता हूं कि धर्म के आचार्य या धर्मशास्त्र वृत्तियों के दमन की बात नहीं बताते। यदि वृत्तियों के दमन की ही बात होती तो निर्जरा की प्रक्रिया हमारे सामने नहीं आती। ___ मनोविज्ञान ने जो रूपान्तरण की बात का प्रतिपादन किया, वह सामाजिक स्तर का रूपान्तरण है। उनके पास अध्यात्म की प्रक्रिया नहीं है। अध्यात्म-साधना में एक ऐसी प्रक्रिया का प्रतिपादन है जिसके द्वारा व्यक्ति की वृत्तियों का विलीनीकरण हो जाता है और नये चैतन्य का उदय होता है। हमारी वृत्तियां जागती हैं काम-केन्द्र के पास। क्रोध की वृत्ति, भय और काम-वासना की वृत्ति काम-केन्द्र के आसपास जागती हैं। नाभि के पास दो एड्रीनल ग्रन्थियां हैं। वे वृत्तियों को उत्तेजित करती हैं। जब ऊर्जा नाभि के आसपास घूमती है तब क्रोध, भय और काम की वृत्तियां बार-बार उभरती हैं, और व्यक्ति को सताती रहती हैं। साधना से ऊर्जा का दिशान्तरण करना है, उसके प्रवाह को बदल देना है, उनकी दिशा को बदल देना है। जो ऊर्जा नीचे की ओर प्रवाहित होकर निम्न वृत्तियों को शक्ति देती है, सक्रिय करती है, उसको ऊर्ध्वगामी बनाना, ज्ञान-केन्द्र की ओर प्रवाहित करना-यह साधना का मूल लक्ष्य है। जब ऊर्जा ऊपर की ओर बहने लग जाती है तब वृत्तियां शान्त हो जाती हैं। जब ऊर्जा ज्ञान-केन्द्र तक पहुंचती है तब वृत्ति-केन्द्रों का ही शोधन १६४ आभामंडल
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