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बाहर निकलना चाहती थी, यदि उसे जबरदस्ती रोका जाए तो वह भीतर से धक्का मारती है। वह तो शक्ति है। जहां वह धक्का मारती है, वहां का अवयव हानिग्रस्त हो जाता है। मन को आघात पहुंचता है, इसलिए दबाओ मत, रेचन करो। वृत्ति को निकाल दो, मिटा दो। रेचन करो ध्यान के द्वारा, रेचन करो भावना के द्वारा, रेचन करो शब्द के द्वारा। अध्यात्म के आचार्यों ने रेचन करने के अनेक सूत्र दिए। उन्होंने कहा-'जब क्रोध की वृत्ति जागे तब एक ऐसे शब्द का उच्चारण करो कि क्रोध की वृत्ति को धक्का भी न लगे और क्रोध का रेचन भी हो जाए।
'कोहो पीइं पणासेई'-क्रोध प्रीति का नाश करता है। हमारे भीतर बहने वाली प्रेम की गंगा को क्रोध मलिन बना देता है। मैत्री की धारा को क्रोध मलिन कर देता है, दूषित कर देता है। इसलिए क्रोध आते ही ऐसे शब्द का आलंबन लो। एक शब्द को याद करो, तत्काल क्रोध की वृत्ति का रेचन हो जाएगा। शब्द का आलंबन, शब्द से निकलने वाली ध्वनि-तरंगों का आलंबन। भावना और दीर्घश्वास का आलंबन भी क्रोध की वृत्ति के रेचन में सहायक होता है। जैसे ही मन में क्रोध जागृत हो, दीर्घ श्वास का प्रयोग शुरू कर दें। श्वास के रेचन के साथ कार्बन निकलता है और साथ-साथ क्रोध की ऊर्जा भी निकल जाती है। क्रोध शांत हो जाता है। एक आदमी में काम की वृत्ति जागती है। जब वह बाहर निकलती है, तब आदमी सुख का अनुभव करता है। इतना-सा सुख कि जो ऊर्जा काम की वृत्ति के साथ जुड़ी, जो हमारी जैविक विद्युत् काम की वृत्ति के साथ जुड़ी, वह विद्युत् बाहर निकलना चाहती है। जब बाहर निकल जाती है तब ऐसा लगता है कि शांति मिली, बड़ा सुख मिला। जब वह भीतर ही रहती है तब प्रतिरोध करना शुरू करती है और भीतर ही भीतर कचोटने लगती है। काम का सुख, क्रोध का सुख, वृत्ति का सुख मात्र इतना है कि विद्युत् का बाहर निकल जाना। जैसे फोड़े में पीप पड़ जाती है और उसे दबाकर पीप को निकाल देने पर व्यक्ति को सुख होता है, शांति होती है। जैसे पीप विजातीय पदार्थ है और उसके बाहर निकलने पर शांति मिलती है। वैसे ही काम १६२ आभामंडल
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