________________
नहीं होती । यह भ्रान्ति होगी । आप अपनी भ्रान्ति का आवरण मुझ पर भी न डालें। मैं मानता हूं कि आपका मन बहुत टिकता है । वह इतना एकाग्र होता है कि शायद किसी संन्यासी का भी नहीं होता होगा । फिर भी आप इन प्रेक्षा ध्यान शिविरों में आते हैं और इसलिए आते हैं कि आप दिशा का परिवर्तन करना चाहते हैं। जहां मन टिकता है वहां वह न टिके और जहां वह नहीं टिकता वहां वह टिकने लगे । केवल इतना-सा परिवर्तन करने के लिए प्रेक्षा ध्यान का अभ्यास होता है । आप अपने आपको सरलता से प्रस्तुत करें। छिपायें नहीं । इतना सा करें कि जो प्रियता की अनुभूति जुड़ी हुई है, उसको मोड़ दें, अनुराग की दिशा को बदल दें। अनुराग की दिशा जो व्यक्ति के साथ, पदार्थ के साथ जुड़ रही है, उसको बदल कर अपने अस्तित्व के साथ जोड़ देना है। भगवान महावीर से पूछा गया - "भंते! धर्म - श्रद्धा से क्या होता है? धर्म के प्रति अनुराग होने से क्या होता है?' भगवान ने कहा - 'धर्म के प्रति अनुराग होने से अनुत्सुकता पैदा होती है अर्थात् जो उत्सुकता होती है वह समाप्त हो जाती है। एक के प्रति जब उत्सुकता समाप्त होती है तब दूसरे के प्रति उत्सुकता जागती है ।' पदार्थ के प्रति रही हुई उत्सुकता जब समाप्त होती है तब धर्म के प्रति उत्सुकता जागती है। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि जब धर्म के प्रति उत्सुकता जागती है तब पदार्थ के प्रति अनुत्सुकता पैदा होती है । उत्सुकता एक पर होगी - पदार्थ पर या धर्म पर। दोनों पर उत्सुकता नहीं हो सकती । एक साथ दो घोड़ों पर सवारी नहीं की जा सकती। अपनी उत्सुकता, अपनी श्रद्धा को हम दोनों ओर नहीं ले जा सकते । पदार्थ के प्रति उत्सुकता है तो धर्म के प्रति उत्सुकता नहीं रहेगी। धर्म के प्रति उत्सुकता है तो पदार्थ के प्रति उत्सुकता नहीं रहेगी । उत्सुकता का प्रवाह जिस ओर जाएगा उस दिशा को वह लाभान्वित करेगा और दूसरी दिशा अपने आप हट जाएगी। हमें अपनी उत्सुकता को चैतन्य की दिशा में प्रवाहित करना है । इसलिए करना है कि पदार्थ के प्रति हमारी उत्सुकता जितनी गहरी होती है उतना ही तनाव मन में भर जाता है। हम तनाव की स्थिति से इसलिए आक्रान्त हैं कि हमारा सारा आकर्षण, हमारी सारी श्रद्धा
तनाव और ध्यान (२) १४५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org