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माया ने अभिमान को जन्म दिया और अभिमान ने क्रोध को जन्म दिया। यदि अभिमान न हो तो क्रोध नहीं हो सकता। क्रोध होने के लिए अभिमान का होना जरूरी है। क्रोध नहीं आता है तो अहंकार पर चोट होती है, अभिमान पर प्रहार होता है। अहंकार पर चोट हुए बिना क्रोध नहीं आ सकता। अभिमान का अर्थ है-मेरापन। आपने किसी को अपना मान लिया। यह मेरा पुत्र है, पुत्री है, पत्नी है, पिता है, माता है, मेरा भाई है, मेरा मित्र है। जिसको मेरा मान लिया, अपना मान लिया, वह यदि थोड़ी-सी भी अवज्ञा करता है तो क्रोध आ जाता है। जो अपना नहीं है, वह कितनी अवज्ञा करे, इतना क्रोध नहीं आता। यदि अपना व्यक्ति अवज्ञा करता है तो क्रोध आ जाता है। क्रोध के लिए अपनापन ईंधन है। अग्नि के लिए ईंधन अपेक्षित होता है। क्रोध अग्नि है। अहंकार, ममकार उसको प्रज्वलित करने वाला ईंधन है। यदि अहंकार की ऊर्जा न मिले तो क्रोध बुझ जाता है।
क्रोध हमारे व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करने वाला साधन है। क्रोध तक पहुंचते ही हमारे व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति हो जाती है। सामाजिक संबंधों में ये तत्त्व काम करते हैं-राग, लोभ, माया, अहंकार। ये सारे तत्त्व तनाव पैदा करते हैं। प्रियता की अनुभूति होती है, तनाव बन जाता है। जैसे ही प्रियता के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है, एक ध्यान शुरू हो जाता है। ध्यान का आदि-बिन्दु भी राग है और सामाजिकता का आदि-बिन्दु भी राग है। जिसके साथ प्रियता का संबंध जुड़ा उसके प्रति एक गहरा ध्यान प्रारंभ हो जाता है कि कहीं उसका वियोग न हो जाए। आर्त्तध्यान शुरू हो जाता है। आर्तगवेषणा प्रारंभ हो जाती है। लोभ आगे चला। भय पैदा हो गया। प्रियता से लोभ का जन्म होता है और लोभ से भय का जन्म होता है। तनाव बढ़ाने वाले तत्त्वों में भय की प्रमुख भूमिका रहती है। भय बहुत बड़ा तनाव पैदा करता है। भय लोभ का उपजीवी है। किसी वस्तु को पकड़े रखना भय है। शरीर होना एक बात है और शरीर को पकड़े रखना, ममत्व के धागे से बांधे रखना दूसरी बात है। शरीर को हमने इसलिए पकड़ रखा है कि हमारे मन में यह भय छाया हुआ है कि कहीं शरीर छूट न जाए।
तनाव और ध्यान (२) १४३
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