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की शक्ति के दो ही काम हैं-मनुष्य के काम आना और दूसरों को मारने के काम आना।
जब-जब मैं बैलों और भैंसों को भार ढोते देखता हूं, तब-तब मन में आता है कि यदि इनमें चेतना का विकास होता तो न जाने आज ये क्या होते? इनमें चेतना का विकास नहीं है। हजारों वर्षों से ये भार ढोते आ रहे हैं और हजारों वर्षों तक भार ही ढोते रहेंगे। कोई परिवर्तन नहीं आया, कोई क्रान्ति नहीं हुई, कोई विकास नहीं हुआ। उनके लिए सारे युग समान हैं। प्रस्तर युग आया, मध्ययुग आया और आज अणुयुग चल रहा है। किन्तु पशुओं के लिए सारे युग समान हैं। उन्होंने कोई विकास नहीं किया। वैज्ञानिक युग और प्रस्तर युग उनके लिए समान हैं। मनुष्य में भी शक्ति है, किन्तु शक्ति से अधिक उसमें चेतना का विकास है, इसलिए वह अपनी अल्पशक्ति का उपयोग इस प्रकार करता है कि वह खूखार और प्रचुर शक्तिशाली जानवरों को भी नियंत्रण में ले लेता है, उनसे भी काम ले लेता है। शक्ति में मनुष्य पशु के बराबर नहीं है, किन्तु वह चेतना का उपयोग करना जानता है इसलिए अल्पशक्ति से भी महान् शक्तिशाली जानवरों को वश में कर अनोखे काम कर लेता है। शक्ति की अपेक्षा बुद्धि बड़ी होती है। 'बुद्धिर्यस्य बलं तस्य'–जिसके पास बुद्धि है, उसके पास बल है। बुद्धि का बल, चेतना का बल, ज्ञान का बल-ये बल शारीरिक बल से बड़े होते हैं। वे शारीरिक बल को लांघ जाते हैं।
मनुष्य के पास शक्ति है, चेतना है, किन्तु उसके पास तीसरी वस्तु नहीं है। वह तीसरी वस्तु है-आनन्द। मनुष्य अपनी चेतना के द्वारा शक्ति का उपयोग करता है, किन्तु वह भी शक्ति का सम्यग् उपयोग करना नहीं जानता। वह अपनी शक्ति का उपयोग करके स्वयं क्लान्त होता है और दूसरों को क्लान्त करता है। वह स्वयं किसी का घोड़ा बनता है या दूसरे को अपना घोड़ा बनाता है। वह स्वयं दूसरे पर चढ़ता है या दूसरे को अपने कंधों पर चढ़ाता है, किन्तु आनन्द का अनुभव नहीं कर पाता। आनन्द का अनुभव वही कर पाता है जिसके पास शक्ति हो, चेतना का विकास हो और चेतना का, शक्ति का सही उपयोग हो। १५६ आभामंडल
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