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व्यक्ति को क्या करना है क्या नहीं करना है। और जो व्यक्ति उन मर्यादाओं की रेखाओं का अतिक्रमण करेगा, वह दंडित होगा। या तो स्वयं वह अपनी वृत्तियों को दबाए अन्यथा उसे दंडित होना पड़ेगा।
यह दमन की बात व्यापक है और समाज के स्तर पर चलती है।
दूसरी बात है भोग की। यह व्यापक नहीं है। यह कुछेक लोगों का सिद्धान्त मात्र है। इस सिद्धान्त की पृष्ठभूमि में उनका चिन्तन यह है कि यदि व्यक्ति वृत्तियों को दबाता है, भोगता नहीं, तो दबाते-दबाते वे वृत्तियां इतनी एकत्रित हो जाएंगी कि एक दिन उनका भयंकर विस्फोट होगा और व्यक्ति उस विस्फोट को संभाल नहीं पाएगा। इसलिए वृत्तियों को दबाओ मत, उन्हें भोग लो। समाज-व्यवस्था में यह बात मान्य नहीं है, किन्तु इस सिद्धान्त के प्रतिपादकों ने मानव की अन्तश्चेतना, अन्तर्मन, अवचेतन मन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि यदि वृत्तियों का दमन किया गया तो उनके परिणाम अच्छे नहीं होंगे। बहुत अधिक क्रोध
आ रहा है। यदि उसे जबरदस्ती दबाया गया तो उसका परिणाम यह होगा कि व्यक्ति के सिर में भयंकर पीड़ा उत्पन्न हो जाएगी, हृदय पर भी आघात लगेगा। व्यक्ति उस आघात को संभाल नहीं पाएगा। वह दबाई हुई वृत्ति भीतर ही भीतर सड़ांध पैदा करेगी, शारीरिक और मानसिक बीमारियां उत्पन्न करेगी। इसलिए वृत्ति को दबाओ मत। __मैं मानता हूं कि यह सुन्दर सिद्धान्त है। दमन करो के आगे की बात है-दमन मत करो। मनोविज्ञान का यह प्रतिपादन बहुत महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने मन की गहराइयों में जाकर जिन सूक्ष्म सत्यों को खोजा है, उनमें बहुत सचाई है। वे केवल मानसिक कल्पनाएं मात्र नहीं हैं। किन्तु उनमें कुछ अधूरापन भी है। ‘मत दबाओ'–इतनी बात तो ठीक है, किन्तु 'उनका उन्मुक्तभोग करो', इस बात के कटु परिणाम आए। ‘मत दबाओ' का अर्थ उन्मुक्तभोग कर इस सिद्धान्त के हृदय को ही तोड़ डाला। कुछ साधकों ने अध्यात्म के नाम पर, धर्म और ध्यान के नाम पर मुक्तभोग के प्रयोग प्रारम्भ कर दिए और उन प्रयोगों से अध्यात्म लांछित होने लगा। आज इस मुक्तभोग का व्यापक विरोध हो रहा है। यह विरोध है सामाजिक व्यवस्था का। भारतीय समाज-व्यवस्था इस प्रकार के
आभामंडल १५६
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