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ता देता है कि तुम
का भय, मृत्यु का खतरा है रोग
मरना इतना जटिल नहीं है, दुःखदायी नहीं है, जितना जटिल और दुःखदायी है मरने का भय। मरने के भय की बहुत बड़ी समस्या है। रोग दुःख देता है, पर रोग इतना दुःख नहीं देता जितना दुःख रोग का भय देता है। कभी-कभी रोग का पता ही नहीं चलता, किन्तु जब डॉक्टर यह बता देता है कि तुम अमुक रोग से पीड़ित हो और अब ज्यादा जीवित नहीं रह सकोगे-यह राग का भय, मृत्यु का भय अत्यधिक भयंकर हो जाता है, रोग जितना खतरा नहीं है, उतना खतरा है रोग का भय। मरना जितना दुःखद नहीं है, उतना दुःखद है मरने का भय। हमने हजारों प्रकार के भय पाल रखे हैं। भय इसलिए पल रहे हैं कि उनकी पृष्ठभूमि में प्रियता की भावना है। वहां राग काम कर रहा है। हम इतने घबरा रहे हैं कि जो प्रिय है वह छूट न जाए। पदार्थ छूट न जाए, शरीर छूट न जाए, प्रियजनों का सम्बन्ध छूट न जाए। धन छूट न जाए। इस भय ने मनुष्य को एक ध्यान में डाल दिया। मनुष्य निरन्तर उस ध्यान में बहा जा रहा है। सभी व्यक्ति ध्यान करते हैं। साधक ही ध्यान नहीं करते, प्रत्येक जीवधारी ध्यान करता है। बच्चा भी ध्यान करता है। बूढ़ा भी ध्यान करता है। पुरुष भी ध्यान करता है और स्त्री भी ध्यान करती है। प्रेक्षा-ध्यान-शिविर में आकर आप यह न मानें कि आप ही ध्यान करते हैं। आप अपने ध्यान-शिविर पचासों वर्षों से घर पर चलाते आ रहे हैं। आप यहां केवल दिशा-परिवर्तन के लिए आए हैं, ध्यान के लिए नहीं। जिस दिशा में आपकी ध्यान-धारा प्रवाहित हो रही थी, उसकी दिशा को बदलने के लिए आप आए हैं। घर पर जो ध्यान हो रहा था, वह प्रियता और भय से संचालित था। आर्तध्यान और रौद्र ध्यान हो रहा था। विषयों को उपलब्ध करने तथा विषयों के संरक्षण का ध्यान चलता था। पदार्थों को प्राप्त करने का ध्यान तथा उसकी सुरक्षा का ध्यान-यह ध्यान निरन्तर चल रहा है। दिन-रात चल रहा है। यह ध्यान सोते भी चलता है और जागते भी चलता है। प्रेक्षा-ध्यान केवल जागृत अवस्था में ही चलता है, सोते नहीं चलता। आर्त और रौद्र ध्यान निरन्तर चलने वाले ध्यान हैं। आप इस प्रकार के ध्यान के अभ्यस्त हैं। आप यह न कहें कि आपका मन टिकता नहीं, एकाग्रता
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आभामंडल
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