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खाता है, पीता है, पहनता है। सारे पदार्थों को छोड़कर वह कैसे जी सकता है? मैं मानता हूं कि जो व्यक्ति पदार्थ से द्वेष करता है, घृणा करता है, कोसता है, गालियां देता है तो समझना चाहिए कि उसमें कोई आत्म-ग्लानि हो गई है, मनोविकृति पैदा हो गई है। पदार्थ को नहीं छोड़ा जा सकता, उसके प्रति रहे मिथ्या दृष्टिकोण को छोड़ा जा सकता है। जो व्यक्ति साधना शिविरों में आते हैं, वे पदार्थ को छोड़ने के लिए नहीं आते । यदि वे पदार्थ को छोड़ने के लिए आते तो शायद परिवार वाले उनको आने ही नहीं देते । यदि पत्नी को पता चले कि मेरा पति मुझे छोड़ने के लिए वहां जा रहा है तो शायद कोई पति यहां नहीं आता। यदि किसी पति को पता चले कि उसकी पत्नी उसे छोड़ने के लिए वहां जा रही है तो शायद कोई पत्नी यहां नहीं आती । शिविर में कई दम्पती भी आते हैं, पति-पत्नी साथ आते हैं। दोनों को ही पता चल जाता तो वे दूसरी दिशा में जाते, यहां नहीं आते ।
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शिविर में पदार्थ छोड़ने के लिए नहीं आते। वे आते हैं मिथ्या दृष्टिकोण को बदलने के लिए। हमने एक मिथ्या दृष्टि बना ली और हमने पदार्थ को पदार्थ के रूप में नहीं जाना, पदार्थ को यथार्थ रूप में देखना नहीं जाना । हम पदार्थ को देखते हैं उस पर अपना आवरण डालकर । उसे जिस दृष्टि से देखना चाहिए उस दृष्टि से नहीं देखते। यह सबसे बड़ी भ्रान्ति है । ध्यान की दिशा का परिवर्तन तब होगा जब हमारी सम्यग् दृष्टि जागेगी। केवल कायोत्सर्ग या शिथिलीकरण से दिशा नहीं बदलेगी । पद्मासन या कोई आसन दिशा - परिवर्तन का मुख्य हेतु नहीं है । पद्मासन में बैठे-बैठे तो किसी को मारने की योजना भी बनाई जा सकती है। आंखें बन्द कर बैठे-बैठे किसी को ठगने की, धोखा देने की या कहीं चोरी करने की योजना भी बनाई जा सकती है। इनसे दिशा का परिवर्तन नहीं होता । दिशा का परिवर्तन तब होता है जब सम्यग् - दृष्टि जागती है । सम्यग्दृष्टि के जागरण का फलित यह है कि व्यक्ति पदार्थ को केवल पदार्थ की दृष्टि से देखे, प्रियता या अप्रियता की दृष्टि से न देखे । आज अर्थ की यह समस्या इतनी जटिल क्यों बनी ? इसलिए बनी कि हम अर्थ को अर्थ की दृष्टि से नहीं देखते।
१४८ आभामंडल
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