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मुझे उपलब्ध हुआ। धीरे-धीरे रूपान्तरण घटित होने लगा-ज्ञान के क्षेत्र में, विद्या और मेधा के क्षेत्र में, स्वभाव और व्यवहार के क्षेत्र में।
रूपान्तरण की प्रक्रिया से प्रत्येक मनुष्य तलहटी से शिखर तक पहुंच सकता है। प्रक्रिया के बिना यह संभव नहीं है। बिना मार्ग पर चले, बिना आरोहण किए, कोई शिखर को नहीं छू सकता। जो जहां है, वहीं रहेगा। जहां पचास वर्ष पहले था, उसी बिन्दु पर वह पचास वर्ष बाद भी रहेगा। कोई अन्तर नहीं आएगा। क्योंकि उसे प्रक्रिया उपलब्ध नहीं है और यदि प्रक्रिया उपलब्ध भी है और वह उसका अभ्यास नहीं कर रहा है, ऐसी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता।
अध्यात्म का समूचा मार्ग रूपान्तरण की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया का अभ्यास क्रम है। जो व्यक्ति इस अभ्यास-क्रम को स्वीकार कर लेता है, वह निश्चित ही अपनी लेश्याओं को बदल देता है। वह कृष्ण, नील
और कापोत लेश्याओं का अतिक्रमण कर या उन्हें बदलकर वह तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याओं में चला जाता है। वह इन लेश्याओं के स्पंदनों के अनुभवों में चला जाता है। वहां जाने पर स्वभाव में अपने आप परिवर्तन प्रारम्भ हो जाता है। यह है हमारे स्वभाव-परिवर्तन की प्रक्रिया।
___ मैं फिर इस बात को दोहराना चाहता हूं कि जो धार्मिक अपने स्वभाव को बदलना नहीं चाहता है, वह यथार्थ में धार्मिक नहीं है। जो धर्म-गुरु अपने अनुयायियों के स्वभाव को बदलने का उपक्रम नहीं करता, वह अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक नहीं कहा जा सकता। दोनों ओर से उपक्रम चलना चाहिए। अनुयायी बदलना चाहे और मार्ग-दर्शक उन्हें बदलने की प्रक्रिया बतलाए, अभ्यास-क्रम बतलाए, ऐसा होने पर ही धर्म की तेजस्विता, धर्म की वास्तविकता प्रकट होगी और धर्म का अलौकिक रूप लोकोत्तर स्वरूप हमें प्राप्त होगा। धर्म लौकिक नहीं है, वह लोकोत्तर है। वह लोकोत्तर इसलिए है कि लौकिक पदार्थ से जो नहीं मिलता, वह धर्म से मिलता है। धन लौकिक उपक्रम से प्राप्त होता है। सत्ता लौकिक उपक्रम से मिलती है। दुनिया के सारे उपक्रम लौकिक हैं। इन लौकिक प्रयत्नों से अनेक चीजें मिलती हैं, किन्तु मन की शान्ति, स्वभाव का परिवर्तन, व्यक्तित्व का रूपान्तरण, सहज और अलौकिक आनन्द ६८ आभामंडल
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