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नहीं है। ये सब निमित्त बन सकते हैं। किन्तु जहां सुख और दुःख पैदा होता है वह सारा चेतनशक्ति की अनुभूति में पैदा होता है। हमने अनुभूति को निकाल दिया। केवल परिस्थितिवाद और घटनाचक्र, केवल पदार्थ पर सारा आरोपित कर दिया। जब तक मिथ्यादृष्टि समाप्त नहीं होती, तब तक दुःख के कारणों को समाप्त नहीं किया जा सकता, दुःख के उपादान को समाप्त नहीं किया जा सकता और दुःख की जड़ का उन्मूलन नहीं किया जा सकता।
सम्यक् दृष्टि का अर्थ है-मन को प्रियता और अप्रियता की अनुभूति से मुक्त करना। जब तक हमारा मन प्रियता और अप्रियता की अनुभूति से मुक्त नहीं होता तब तक हमें सम्यक् दृष्टि उपलब्ध नहीं हो सकती। हम बड़े-बड़े शास्त्रों को रट लें, तत्त्वों के नाम याद कर लें, तत्त्वों का पारायण कर लें, फिर भी हमें सम्यक् दृष्टि उपलब्ध नहीं हो सकती। यदि हम इस प्रियता और अप्रियता की अनुभूति से मुक्त नहीं हैं, यदि हमारा यह संवेदन समाप्त नहीं होता है तो हमें सत्य उपलब्ध नहीं होता
और सत्य के उपलब्ध न होने पर सब दुःखों को समाप्त करने का कोई उपाय उपलब्ध नहीं होता। सम्यक् दृष्टि, सम्यक्त्व, सत्य सब एक ही हैं। सत्य हमें तब उपलब्ध होता है जब हम मूल सत्ता को जानें, अस्तित्व को जानें। ध्यान इसलिए कर रहे हैं कि हम ज्ञाता को जानें, विषयी को जानें, द्रष्टा को जानें। द्रष्टा, ज्ञाता और विषयी-जो पर्दे के पीछे चला गया, हम उसका अनुभव करें। एक वैज्ञानिक उसे नहीं जान सकता, एक ध्यानी उसे जान सकता है। ध्यान के सारे नियम ज्ञाता तक पहुंचाने के नियम हैं। वैज्ञानिकों के पास ऐसा कोई नियम नहीं है जिससे कि वह उस परम सत्ता को जान सके। ध्यानी जिन विषयों के आधार पर चलता है अपने संवेदनों को शुद्ध करता चलता है, अपने भोक्ता स्वरूप को छोड़ता चलता है। उसे ज्ञाता स्वरूप का साक्षात् हो जाता है। सुख-दुःख का अनुभव उसे होता है जो भोक्ता होता है। भोक्ता वह होता है जो प्रियता और अप्रियता का अनुभव करता है। जो ज्ञाता होता है वह घटना को जानता है, भोगता नहीं। उसका काम है केवल जानना। जहां केवल जानने की बात आती है वहां ज्ञान शुद्ध हो जाता है, संवेदन
ध्यान क्यों? १२१
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