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ही सुनने का साधन हैं तब हमने अन्य क्षमताओं को विस्मृत कर दिया। आज का विज्ञान कहता है कि कानों की अपेक्षा दांतों से अच्छा सुना जा सकता है। दांत सुनने के शक्तिशाली साधन हैं। यदि थोड़ा-सा यांत्रिक परिवर्तन किया जाए तो जितना अच्छा दांत से सुना जा सकता है, उतना अच्छा कान से नहीं सुना जा सकता। एक लब्धि का नाम है-अभिन्न-श्रोतो-लब्धि। जो व्यक्ति इस लब्धि से सम्पन्न होता है, उसकी चेतना का इतना विकास हो जाता है कि उसका समूचा शरीर कान, आंख, नाक, जीभ और स्पर्श का काम कर सकता है। उसके लिए कान से सुनना या आंख से देखना आवश्यक नहीं होता। वह शरीर के किसी हिस्से से सन सकता है, देख सकता है। वह पांचों इन्द्रियों का काम समूचे शरीर से ले सकता है। उसके ज्ञान का स्रोत अभिन्न हो जाता है, व्यापक बन जाता है। समूचा शरीर अभिन्न हो जाता है, व्यापक हो जाता है।
यह अनुभव का पक्ष है। यह तर्क का विषय नहीं बनता। दर्शन ने इसको भुला दिया। उसका परिणाम बहुत विपरीत हुआ। आज फिर से दार्शनिकों को, दर्शन के विद्यार्थियों को, धार्मिक और आध्यात्मिक लोगों को चिन्तन करना चाहिए कि दर्शन को तर्क के कटघरे से निकालकर अनुभव के व्यापक क्षेत्र में कैसे लाया जा सकता है। दर्शन को हम अनुभव के साथ जोड़ने का प्रयत्न करें, जिससे कि दर्शन फिर पिता का स्थान ले सके और अपने पुत्र (विज्ञान) पर नियमन कर सके। नियमन इस अर्थ में कि आज के विज्ञान ने नये-नये सत्यों को खोजा है। उसके नये-नये पर्याय उद्घाटित किए हैं, नये-नये रहस्यों को अनावृत किया है। इस दिशा में वह बहुत सक्षम हुआ है, किन्तु जो मूल ज्ञाता है
आत्मा, उसको मूल स्थान दिलाने में सफल नहीं हुआ है। वह भटका हुआ है। जानने के बाद प्रत्याख्यान की बात आती है, छोड़ने की बात आती है। यह बात विज्ञान को भी आज उपलब्ध नहीं है। यदि दर्शन फिर सक्षम बन सकें, तर्क और अनुभव-दोनों का उचित प्रयोग कर सकें तो विज्ञान का पिता दर्शन पुनः शक्तिशाली हो सकता है। तब ही वह विज्ञान का नया आयाम दे सकता है। दर्शन के साथ स्व-अनुभव १३४ आभामंडल
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