________________
की बात जोड़ी जाए। विज्ञान का इतना विकास होने पर भी आदमी अशान्ति का अनुभव कर रहा है और अधिकाधिक तनावग्रस्त होता जा रहा है। विज्ञान के पास ऐसा कोई उपाय नहीं है कि वह आदमी को तनाव से सर्वथा मुक्त कर सके। किन्तु दर्शन मनुष्य को तनावमुक्त करने में सक्षम है। तर्कों से अनुप्राणित दर्शन यह नहीं कर सकता। यह वह दर्शन कर सकता है जो अध्यात्म से अनुप्राणित है, स्वानुभव संरचित है। दर्शन के इस पक्ष को मैं प्रस्तुत करना चाहता हूं।
जगत क्या है? द्रव्यों का समवाय ही जगत् है। उस द्रव्य समवाय में एक द्रव्य है-जीवास्तिकाय । जीवों का इतना बड़ा संघटन है कि जगत् के आकाश का एक भी प्रदेश ऐसा नहीं है जो जीवशून्य हो। समूचा जगत् जीवों के समवाय से भरा पड़ा है। आकाश के एक-एक प्रदेश में असंख्य जीव हैं। मेरी अंगुली हिल रही है, यह शून्य आकाश में नहीं हिल रही है। इस अंगुली के आस-पास ही नहीं, भीतर भी असंख्य जीव बैठे हैं। आकाश के एक-एक प्रदेश में, एक-एक कण में असंख्य जीव बैठे हैं। उनके चैतन्य के प्रदेश व्याप्त हो रहे हैं। तीन बातें हैं-द्रव्यमय संसार, द्रव्यों में जीवास्तिकाय और जीवास्तिकाय में एक जीव। एक जीव है किन्तु वह अव्यक्त है। हम अव्यक्त से व्यक्त जगत् को जानना चाहते हैं। हम अव्यक्त सष्टि की ओर चलना चाहते हैं। द्रव्य अव्यक्त, जीवास्तिकाय अव्यक्त और एक जीव भी अव्यक्त। हमारे सामने व्यक्त नहीं है। एक जीव है। उस जीव के आस-पास भाव-संस्थान हैं। एक भाव-संस्थान चेतना का निर्वहन करता है, चेतना की धारा को बाह्य जगत् में संक्रान्त करता है। एक वह भाव-संस्थान है जो चेतना के साथ जुड़ी हुई प्रतिक्रियाओं के प्रवाह को इस जगत् में प्रस्तुत करता है। इसका नाम है कर्म। दो प्रवाह हो गए। एक है चेतना का प्रवाह और दूसरा है चेतना की प्रक्रियाओं का प्रवाह। भाव-संस्थान से जुड़ा हुआ है कर्म, प्रतिक्रियाओं का संस्थान। उस कर्म से जुड़ा हुआ है मोहनीय, मूर्छा। द्रव्य, जीवास्तिकाय, जीव, भाव और कर्म-यह सारा का सारा अव्यक्त संसार है। यह हमारे सामने व्यक्त नहीं है। अब हम प्रेक्षाध्यान के माध्यम से व्यक्त के बिन्दु पर आ रहे हैं, मूर्छा का हमें पता चलता है। इसे
तनाव और ध्यान (१) १३५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org