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में जाना होगा और लेश्या जगत् में तभी जाया जा सकता है जब हम अपने विचारों और संवेदनाओं पर नियंत्रण करना सीख जाएं। हम श्वास को देखने का अभ्यास करते हैं। श्वास के सिवाय और कुछ न देखें, श्वास को ही देखें। यह संवेदन और विचारों के नियंत्रण का मार्ग है। यह अभ्यास जैसे-जैसे विकसित होगा, तरंगों की भाषा को समझने में भी उतने ही सक्षम होते जाएंगे।
प्रश्न २. क्या महावीर के समय सभी लोगों और पशु-पक्षियों में यह क्षमता थी?
उत्तर-टेढ़ा प्रश्न है। पशु-पक्षियों में संवेदनों को समझने की शक्ति मनुष्यों से अधिक विकसित है। क्योंकि वे अपने स्रोतों पर भरोसा नहीं करते, अपने समूचे शरीर पर भरोसा करते हैं। मनुष्य ने अपने स्रोतों पर अधिक भरोसा कर लिया इसलिए समूचे शरीर से जानने की क्षमता गंवा बैठा। किन्तु कोई समर्थ योगी, समर्थ अध्यात्म का तेजःपुंज होता है, उसके प्रकंपनों में इतनी क्षमता होती है कि वे अनेक व्यक्तियों की सोयी हुई शक्तियों को जागृत कर देते हैं। उसमें केवल सुनने वाले की क्षमता का ही योग नहीं होता, उस साधक के परमाणुओं का भी बहुत बड़ा योग होता है जो संप्रेक्षण कर रहा है।
प्रश्न ३. क्या सुषुम्ना की नाड़ी सीधी नहीं होती? क्या बिना सीधी हुए ध्यान नहीं होता।
उत्तर-सुषुम्ना का आकार बिल्कुल सीधा तो नहीं है, कुछ टेढ़ा-मेढ़ा है। हम इसकी चिन्ता ही न करें। हम केवल इतना ध्यान रखें कि बैठते समय रीढ़ की हड्डी सीधी रहे। पद्मासन इसके लिए अच्छा है। इस आसन में बैठने पर रीढ़ की हड्डी अपने आप सीधी बनी रहती है। इसी प्रकार अर्धपद्मासन, सिद्धासन आदि आसनों में बैठने से भी रीढ़ की हड्डी सीधी रह सकती है। हम झुककर न बैठें। झुककर बैठना साधारण-सी बात है। जब कभी सीधा बैठने की बात आती है तब लोग शिकायत करते हैं कि दर्द हो गया। दर्द हुआ नहीं, दर्द का पता चल गया। जो दर्द पाल रखा था, वह छुपा हुआ था, उसका पता लग गया। मन के विकल्पों को शान्त करने का यह सबसे सरल तरीका है कि
१३८ आभामंडल
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