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में होती है। पांचों इन्द्रियां नहीं होतीं, फिर भी एक स्पर्शन इन्द्रिय तो होती ही है। इसलिए व्याख्याकारों ने संतोष किया, उसमें स्पर्श इन्द्रिय है तो मतिज्ञान को मानने में कोई आपत्ति नहीं है । किन्तु जब प्रश्न उठा कि वनस्पति में श्रुतज्ञान भी है, तब उसकी व्याख्या कठिन हो गई । क्योंकि श्रुतज्ञान तब होता है जब भाषा हो, श्रोत्रेन्द्रिय हो, मन की विकसित अवस्था हो । किन्तु वनस्पति में न भाषा है, न श्रोत्रेन्द्रिय है और न मन की विकसित अवस्था ही है । उसमें दीर्घकालिकी संज्ञा नहीं होती जो अतीत और भविष्य का ज्ञान संकलित कर सके और वर्तमान में उपलब्ध ज्ञान की सामग्री को अतीत और भविष्य के साथ संतुलित कर सके। वह क्षमता वनस्पति के जीवों में नहीं है । ऐसी स्थिति में उनमें श्रुतज्ञान कैसे हो सकता है? उन्होंने तर्क का सहारा लिया, और तर्क के द्वारा इस प्रस्थापना को सहारा देने का प्रयत्न भी किया। उनके पास बुद्धि थी, तर्कबल था । उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि वनस्पति में श्रुतज्ञान स्पष्ट नहीं है, फिर भी उसमें अस्पष्ट श्रुतज्ञान है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा - वनस्पति में क्रोध की संज्ञा होती है, आहार की संज्ञा होती है, भय और मैथुन की संज्ञा होती है । परिग्रह की संज्ञा होती है। यह सारा कथन बुद्धि के बल पर तर्क के बल पर था। इसमें साक्षात्कार जैसी बात नहीं थी । यदि दर्शन के साथ साक्षात्कार की प्रक्रिया जुड़ी होती, प्रयोग और परीक्षण की बात जुड़ी होती तो वे आचार्य वनस्पति के सम्बन्ध में उपलब्ध सामग्री के आधार पर और नया कुछ दे सकते । पूर्व में नया जोड़ देते । जितने तथ्य वैज्ञानिक दे रहा है, उतने तथ्य वे ऋषि भी दे सकते थे । किन्तु ऐसा इसलिए नहीं हो रहा है कि साक्षात्कार की प्रक्रिया छूट गई है। वर्तमान में हमारे पास शब्द, तर्क और चिन्तन के सिवाय कोई ज्ञान नहीं है जिससे कि साक्षात्कार की बात की जा सके। इससे हमारी चेतना कुण्ठित हो गई, दर्शन लंगड़ा बन गया, उसका एक पैर टूट गया या काट दिया गया। साक्षात्कार वाला पैर कट गया और तर्क वाला पैर लंगड़ाता -लंगड़ाता चलने लगा। सबसे शक्तिशाली पैर था अनुभव का । उसके कट जाने पर तर्क की वैसाखी के सहारे दर्शन चलता रहा। वैसाखी की अपनी
आभामंडल
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